क्या शनि विरोधाभासी फल प्रदान करता है ?

जिज्ञासु का प्रश्न –

ज्योतिषीय दुविधा

एकतरफ ज्योतिषीवर्ग कहता है कि शनि ग्रह मंदता, आलस्य और विलंब के कारक है तो वही दूसरी ओर यही ज्योतिषी वर्ग कहता है कि शनि देव कठोर परिश्रम भी करवाता है

अब ये दो विरोधाभासी बाते कैसे संभव है? जिसका गुणधर्म ही विलंब और आलस्य हो वो भला कठोर परिश्रम कैसे कर सकता है??

जानकार व्यक्ति कृपया योग्य मार्गदर्शन करें।

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ब्रजेश पाठक ज्यौतिषाचार्य जी का उत्तर –

 

इस विषय में कहने को तो बहुत कुछ है पर सार रूप में कुछ बातें बता रहा हूँ। जन्मकुंड़ली में ग्रहों का फल कहने से पूर्व उसका विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण क्यों किया जाता है और विश्लेषण में क्या किया जाता है? कोई भी ग्रह कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है- स्वप्नादि, बालादि, दीप्तादि, उच्चादि, नीचादि, वक्रादि। इसके अलावा ग्रहों के भावफल, राशिफल, दशाफल, युतिफल, दृष्टिफल, योगफल, गोचरफल आदि भी होते हैं। इस प्रकार किसी भी ग्रह के कई पहलू होते हैं । संक्षेप में हम उन्हें दो भागों में बाँट लें – एक है सकारात्मक पहलू दूसरा है नकारात्मक पहलू ।

ग्रहस्थिति यदि सकारात्मक हो तो ग्रह अपने स्वरुप और स्वभाव का पूरा फल देता है और यदि ग्रहस्थिति नकारात्मक है तो ग्रह अपने स्वरुप या स्वभाव के विपरीत फल देगा ।

कौन सा ग्रह क्या फल देगा ? इसके लिए सबसे पहले ग्रहों के स्वभाव को समझना होता है। ग्रहों के स्वभाव को समझने के लिए मैं आचार्य वराहमिहिर-विरचित् वृहज्जातकम् ग्रन्थ के कुछ पद्य प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सर्वप्रथम समेकित रुप से ग्रहों के कारकत्व को बताया जा रहा है –
कालात्मादिनकृन्मनस्तुहिनगुः सत्वं कुजो ज्ञो वचो
जीवो ज्ञान सुखे सितश्च मदनो दुःखं दिनेशात्मजः ।
राजानौ रवि शीतगू क्षित सुतो नेता कुमारो बुधः
सूरिर्दानवपूजितश्च सचिवौ प्रेष्यः सहस्रांशुजः ॥
– वृहज्जातकम्, अ.२श्लो.१
अर्थात् – इस विश्व की कल्पना एक कालपुरुष के रुप में की कई है और बताया जा रहा है कि यहाँ कौन-कौन से ग्रह नैसर्गिक रुप से क्या-क्या प्रदान करते हैं ?
कालपुरुष का सूर्य आत्मा है,चंद्रमा मन है, मंगल शारीरिक बल है, बुध वाणी है, गुरु ज्ञान और सुख है, शुक्र कामशक्ति है और शनि दुःख है । अर्थात् उक्त बातें सूर्यादि ग्रहों के द्वारा हमारे जीवन में नियंत्रित की जाती हैं।

अब वृहज्जातकम् के अध्याय दो में ही विस्तार से सभी ग्रहों के कारकत्व को बता रहे हैं।

मधु पिङ्गलदृक् चतुरस्र तनुः
पित्त प्रकृतिः सविताल्प कचः ।
तनु वृत्त तनुर्बहु वात कफः
प्राज्ञश्च शशी मृदु वाक् शुभदृक् ॥ ८॥
अर्थात् – शहद के समान पीली दृष्टि, लम्बाई चौड़ाई में तुल्य शरीर, पित्ताधिक्य और बहुत कम केश वाला सूर्य ग्रह है ।
गोलाकृति,छोटाशरीर, वातकफाधिक्य, बहुत बुद्धिमान, मधुरभाषी, सुंदर सुचारू और दर्शनीय नेत्र चन्द्रमा का स्वरुप है ।

क्रूरदृक् तरुण मूर्तिरुदारः
पैत्तिकः सुचपलः कृश मध्यः ।
श्लिष्टवाक् सतत हास्यरुचिर्ज्ञः
पित्त मारुत कफ प्रकृतिश्च ॥ ९॥
अर्थात् – तरुणावस्था, क्रूरदृष्टि, बहुत उदार, पित्त-प्रकृति, चंचल स्वभाव, शरीर का मध्यभाग दुर्बल ऐसा मंगल का स्वरुप है ।
गदगद भाषाभाषी, सदा हास्यप्रिय, वातपित्तकफादि गुणयुक्त बुध का स्वरुप है ।

बृहत्तनुः पिङ्गल मूर्धजेक्षणो
बृहस्पतिः श्रेष्ठ मतिः कफात्मकः ।
भृगुः सुखी कान्त वपुः सुलोचनः
कफानिलात्मासित वक्र मूर्धजः ॥ १०॥
अर्थात् – स्थूल देह, पिंगल केश, श्रेष्ठ बुद्धि, कफ प्रकृति गुरु का स्वरुप है ।
सुखमय जीवन, दर्शनीय शरीर, सुंदर नेत्र, वातकफ प्रधान और घुँघराले बाल ये शुक्र का स्वरुप है ।

मन्दोऽलसः कपिलदृक् कृशदीर्घ गात्रः
स्थूलद्विजः परुषरोम कचोऽनिलात्मा ।।११।।
अर्थात् – शनि का स्वभाव है – मन्दता, आलस्य, कपिल नेत्र, दुबला व लम्बा शरीर, स्थूल दाँत, कठोर केश और वात प्रकृति ।

यहाँ आपको आपके प्रश्नानुरुप शनि का स्वरुप सप्रमाण पता चल गया है।

ग्रहों के स्वरुप को बताने का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य जिस ग्रह से प्राभावित होगा, यदि वह ग्रह सकारात्मक है तो जातक को अपना पूरा गुण व स्वरुप प्रदान करेगा। सामान्य सी बात है यदि ग्रह नकारात्मक हुआ, तो अपने गुण के विपरीत फल करेगा ।

लेकिन सावधान……

इस प्रकार ग्रहों के फल कहने से पूर्व वराहमिहिर के ही लघुजातकम् के इस श्लोक को समझना बहुत ही अनिवार्य है । इस श्लोक को कल्याणवर्मा ने भी सारावली में उद्धृत किया है।

आत्मादयो गगनगैर्बलिभिर्बलवत्तराः।
दुर्बलैर्दुर्बलास्ते स्युर्विपरीतं शनेः फलम् ।।
– लघुजातकम् अ.२, श्लो.२
अर्थात् – ऊपर बताए गए आत्मादि विभाग या ग्रहस्वरुप के बारे में कह रहे हैं कि जो ग्रह जन्मकुंड़ली में बलवान होगा उस ग्रह से संबंधित फल मनुष्य को प्रबलता से मिलेंगे । जो ग्रह दुर्बल होगा उसके फलों में कमी आ जाएगी ।
लेकिन शनि के मामले में इस नियम को विपरीत रूप से समझना चाहिए। अन्य ग्रह बली होने पर अपने गुणात्मकता को बढ़ाते हैं जबकि शनि निर्बल होने पर अपने गुणात्मकता को बढ़ाता है, यही विपरीतता है । जैसे ऊपर हमने देखा कि शनि दुःख व आलस्य का कारक है- अब शनि यदि जन्मकुंड़ली में निर्बल (नकारात्मक) होगा तो दुःख व आलस्य बढ़ाएगा । लेकिन यदि शनि बलवान होगा तो निश्चित रूप से जातक सुखी व कर्मठ होगा ।

ये हो गई जड़मूल की बातें । अब उक्त बातों को सिद्ध करने के लिए कुछ साक्षात् प्रमाण भी दे देता हूँ-

स्वोच्चस्वकीयभवने क्षितिपालतुल्यो लग्नेऽर्कजे भवतिदेशपुराधिनाथः ।
शेषेषु दुःखगदपीडित एव बाल्ये दारिद्र्य कर्मवशगो मलिनोऽलसश्च ।।
– सारावली अ.३० श्लो-७४
अर्थात् – लग्न में शनि हो और तुला, मकर, कुम्भ लग्न हो तो मनुष्य राजा के समान देश, पुर या किसी स्थान का अधिपति होता है ।
शेष राशियों में लग्नगत शनि हो तो मनुष्य दुःखी, बचपन में गरीबी देखनेवाला, मलिन तथा आलसी होता है ।

* शनि तुला राशि में उच्च का होता है, मकर व कुम्भ राशी शनि की अपनी ही राशियाँ हैं | इस प्रकार आप देख सकते हैं बलवान शनि व्यक्ति को राजा के सामान बना रहा है | जाहिर सी बात है की जातक कर्मठ होगा तभी किसी राज्य या स्थान का अधिपति बन पाएगा |
* अन्य राशियों में जहाँ शनि निर्बल होगा उनमें व्यक्ति को दुखी, गरीब, मलिन और आलसी बनाने की बात लिखी ही है |

जातक सारदीप नामक ग्रन्थ के शनिचाराध्याय में गुरुक्षेत्री शनि पर गहदृष्टिफल प्रसंग में आचार्य नृसिंह दैवज्ञ कहते हैं –

सौरेद्विमातृपितृको विपिनानुचारी ।
शुक्रेक्षिते भवतिकर्मरतः सुशीलः ।।
– जा.सा. शनिचाराध्याय श्लो.३५
अर्थात् – गुरुक्षेत्री (धनु या मीनस्थ) शनि को शुक्र देखे तो मनुष्य दो माता-पिता का प्यार पाने वाला, वन-उपवनों में विचरण करने वाला, कर्मठ तथा सुशील होता है।

अब जिस शैली में आपने प्रश्न किया है, उसी शैली का अनुसरण करते हुए एक अद्भुत् उत्तर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

होरारत्नम् नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय में ग्रहों के शयनादि 12 अवस्थाओं का वर्णन है । इसी प्रसंग में शनि की भोजनावस्था का फल बताने के लिए आचार्य बलभद्र मिश्र निम्नलिखित श्लोक उद्धृत करते हैं-

भोजने च यदा जातो मन्दाग्निश्च महान् भवेत् ।
अर्शरोगी च शूली च चक्षूरोगी भवेच्च सः ।।२२३ ।।

अर्थात् – जिसके जन्म के समय में शनि भोजन अवस्था में होता है, वह जातक अधिक मंदाग्नि वाला, बवासीर व शूल ( दर्द ) और नेत्र का रोगी होता है ।

तु़ङ्गस्थाने स्वगेहे वा भोजने च यदा शनिः ।
तदा सर्वसुखं ज्ञेयं सर्वरोगविवर्जितम् ।। २२४ ।।

अर्थात् – यदि भोजन अवस्था में शनि उच्च राशि या अपनी राशि में हो तो जातक सब प्रकार से सुखी और समस्त रोगों से रहित होता है ॥

* ग्रहों के अवस्था ज्ञान कैसे किया जाता है, उसका सूत्र यहाँ बताया जाए तो बहुत विस्तार हो जाएगा। यदि जिज्ञासा होगी तो किसी अन्य पोस्ट में उसकी विधि बतायेंगे ।

अब बताइए उक्त दोनों फल भोजनावस्था का ही है या नहीं ? दोनों फल विरोधी है या नहीं ? दोनों फल शनि का ही है या नहीं ???

अब आप विचारें यदि दोनों फल एक ही अवस्था का है, एक ही ग्रह का है तो विरोधी कैसे हो गया ?? एक ही ग्रह समान अवस्थाओं में दो धुरविरोधी फल कैसे दे सकता है ???

आशा है आप अपने प्रश्न का उत्तर जान भी चुके हैं और समझ भी चुके हैं।

© ज्यौतिषाचार्य पं. ब्रजेश पाठक (Gold Medalist)

 

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