वक्री ग्रह रहस्य

प्रश्न:- नीच का व्रकी उच्च का फल देता है,यदि ग्रह लग्न मे नीच और नवांश मे उच्च हो तो प्रभाव किसका होगा? लग्न का या नवांश का।
उत्तर:–आपने एक साथ दो प्रश्न पूछा है!
प्रश्न 1.- नीच का वक्री ग्रह उच्च का फल देता है?
प्रश्न 2.- ग्रह लग्न में नीच और नवमांश में उच्च हो तो किसका प्रभाव होगा? 

 
आइए सर्वप्रथम पहले प्रश्न का उत्तर जान लें-
उत्तर कालामृत में दूसरे अध्याय के छठे श्लोक में कालिदास जी ने लिखा है:-

वक्री स्वोच्चबलः सवक्रसहिते मध्यबलं तुङ्गभे।
वक्री नीचबलः स्वनीच भवने वक्रीबलं तुङ्गजम्।।

अर्थ:- वक्री ग्रह का बल उसके उच्च होने के समान समझना चाहिए। कोई ग्रह जब किसी वक्री ग्रह के साथ हो तो उसे आधा रूपा बल और मिल जाता है। यदि कोई ग्रह उच्च परन्तु वक्री हो तो उसे नीच समझना चाहिए। ग्रह यदि नीच राशि में वक्री हो तो अपनी उच्च राशि में होने जैसा बली होता है।

इसी श्लोक को आधार मानकर यह प्रश्न आपने पूछा है । लेकिन इस श्लोक की सही व्याख्या से आप अवगत नहीं है।
आइए इस श्लोक पर बारीकी से विचार करें |

इस श्लोक का अर्थ समझने के लिए हमें वक्री ग्रह के संबंध में 2-4 बातें और जान लेनी चाहिए-
1. वक्रगो उच्चगो वा महाबली (जा.त. संज्ञा.७१)
-वक्री/उच्चराशि का ग्रह अतिबलवान होता है।
2.शुभा वक्रगा राज्यार्थदाः पापा व्यसनहानिदा:(जा.त.मिश्र.९८)
-वक्री शुभग्रह राज्य और धन देते हैं तथा अशुभ वक्री ग्रह हानि और बूरे फल देते हैं।
3.वक्रस्य पाके स्थानमानसौख्याद्यपचयः (जा.त.मिश्रविवेक)
-वक्री ग्रह की दशा में पदहानि, मान में सुख में कमी रहती है।
4.वक्रीणस्तु महावीर्याः शुभा राज्यप्रदा ग्रहाः।
पापा व्यसनदाः पुंसां कुर्वन्ति च वृथाटनम्।।
(सारावली 5.39)

-शुभग्रह वक्री होकर अतिबलवान् होने से राज्य सुख देते हैं। पापग्रह वक्री होने से व्यसनी और व्यर्थ घूमने वाला बना देते हैं।
5.वक्रोपगस्य हि दशा भ्रमयति च कुलालचक्रवत् पुरुषम्। व्यसनानि रिपुविरोधं करोति पापस्य न शुभस्य।। (सारावली ४०.६८)
-वक्री ग्रह की दशा में चाक की तरह देश-देशान्तरों का भ्रमण, दुर्व्यसनों में वृद्धि, शत्रु से विरोध होता है। यह फल पापग्रह के वक्री होने पर होता है न कि शुभग्रह के।
6. क्रूरा वक्रा महाक्रूरा सौम्या वक्रा महाशुभाः(ज्यो. तत्वप्रकाश २.९०)
-क्रूर ग्रह वक्री होने पर अति क्रूर फलदाता होते हैं तथा वक्री सौम्य ग्रह अतिशुभफल प्रदान करते हैं।

7. भारतवर्ष के मूर्धन्य विद्वान, महान् पण्डित, परम वैयाकरण, न्यायाचार्य व ज्योतिर्विद डॉ.विष्वक्सेनाचार्य (मेरे प्रातःस्मरणीय परमादरणीय गुरुजी) गुरुजी ने वक्री ग्रहफल के संबंध में बहुत जबरदस्त कसौटी मुझे दी थी। उन्होने बताया यदि ग्रह परमोच्च को पार करके वक्री हो रहा है तो निश्चित ही वह शुभफल प्रदान करेगा। लेकिन यदि परमोच्च पर पहुँचने से पहले ही वक्री हो जाए तो उसकी अशुभता बढ़ेगी।

यहाँ पाठक दो बातें और गाँठ बाँध लें-
1. शुभ अशुभ ग्रह विवेक करने में केवल नैसर्गिक शुभता का ही विचार न करके पाराशरीय नियमानुसार तात्कालिक शुभाशुभता का भी विचार करें।
जैसे- मेष लग्न के लिए सूर्य, चन्द्रमा, मंगल व गुरु शुभ (कारक) कहे गए हैं।
2. यह भ्रम मन से  निकाल दें कि उच्चग्रह केवल अच्छा फल करते हैं और नीचग्रह केवल खराब।
उच्च सूर्य रहने पर उग्र स्वभाव, उच्च का चन्द्रमा रहने पर प्रमेह रोग की संभावना, मंगल उच्च रहने पर कुत्सित पुत्र, दुःसाहसी, अभिमानी और प्रवासी, गुरु के उच्च रहने पर चालाक, शुक्र के उच्च रहने पर विलासी, शनि के उच्च रहने पर राजा का ठेकेदार, जंगली अन्न और कुत्सित स्त्री वाला ये सब उच्च ग्रहों के खराब फल शास्त्रों में बताए गए हैं। वहीं नीच का सूर्य या शुक्र रहने पर नौकरी लगने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है।

मेरा अनुभव-
* ग्रह अपना कोई फल नहीं छोड़ते। अगर कोई ग्रह 60% शुभ और 40% अशुभ है तो निश्चित ही वो 60% शुभफल तो अवश्य देगा साथ ही 40% अशुभ फलों से भी जातक को परेशान करेगा।
* सभी वक्री ग्रहों की दशाकाल के दौरान परेशानियाँ, अस्थिरता, भटकाव, स्थान परिवर्तन और चिन्ता आदि अशुभ फल अवश्य होते हैं । यदि ग्रह चर राशि में वक्री होंगे अथवा शनि की अढ़ैया/साढ़ेसाती चल रही हो तो ये फल ज्यादा उत्कट दिखाई देते हैं, यह वक्री ग्रहों का सर्वसामान्य फल है।
*जिस भाव का भावेश वक्री हो उस भाव से संबंधित विपरीत फल जातक को प्राप्त होते हैं। जैसे लग्नेश वक्री हो तो जातक की अव्यवस्थित दिनचर्या, रहन सहन अच्छी न होने से स्वास्थ्य हानि होती है द्वितीयेश के वक्री होने से अच्छा भोजन नहीं मिलता, अपथ्य का सेवन करना पड़ता है जिससे धनव्यय और मारकत्व (रोग,दुर्बलता) बढ़ता है।

अब आपके प्रश्न पर आते हैं, यदि नीच राशि का ग्रह वक्री हो तो वक्री ग्रह के सर्वसामान्य फलों  के अलावा वह पापग्रह रहने पर अपने उच्च राशि के फलानुसार उत्कट पापफल प्रदान करेगा और ऐसे ही नीच राशिस्थ शुभग्रह वक्री हो तो वक्री के ग्रह के सर्वसामान्य फलों के अलावा वह अपनी राशि में उच्च होने का शुभफल प्रदान करेगा। ऐसे ही उच्च राशिस्थ पाप व शुभ ग्रहों के बारे में भी समझना चाहिए।
यहाँ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि ग्रह परमोच्च/परमनीच को पार करके वक्री हुआ है तो शुभाशुभफलों में बढ़ोतरी और कटौती होती है।

आइए उदाहरण कुण्डली के माध्यम से समझें-
जातक
28/09/1998
18:30
Lohardaga

इस जातक की कुंडली में शनि द्वितीय भाव में नीच राशि का होकर वक्री है। 30/08/2014 से 30/10/2017 के दौरान  इसकी शुक्र की महादशा में शनि की अन्तर्दशा चल रही थी। इस जातक की धनु राशि होने से उस दौरान शनि की साढ़ेसाती भी चल रही थी।

इस जातक को शनि की वक्री दशा के दौरान सर्वसामान्य वक्रत्व फल प्राप्त हुआ साथ ही चर राशि में वक्री होने तथा साढ़ेसाती चलने के कारण जातक सम्पूर्ण दशा में यहाँ वहाँ भटकता ही रहा। उच्च शिक्षा के लिए माता-पिता ने इसे बहुत परिश्रम और पैरवी से उच्च संस्थान में दाखिला दिलाया वहाँ से ये चंपत हो गया। कई बार घर छोड़ छोड़ कर भागा। गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज हुई। पूरा परिवार परेशान रहा । इस दौरान कलह,अशान्ति, हलचल और भटकाव के अलावा जातक के जीवन में कुछ नहीं था।

इस जातक की कुंडली में शनि नीच राशि में वक्री होने के कारण उच्च जैसा फल प्रदान करेगा और पापग्रह होने के कारण (मीन लग्न के लिए पाराशरीय नियमानुसार शनि पापग्रह है) उच्च में होने का अशुभ फल प्रदान करेगा ये उपर्युक्त नियमों से स्पष्ट है ही।
आइए देखते हैं शनि का उच्च राशिस्थ अशुभ फल क्या है?

स्वोच्चस्थो रवितनयो नृपलब्धनियोगमभिजनयेत् ग्रामपुराधिपतित्वमरण्यकधान्यं कुनारिलाभं च।।
(सारावली ४५.४)

उच्चस्थ शनि रहने पर जंगली भोजन और खराब स्त्री की प्राप्ति ये दो महान् अशुभ फल बताए गए हैं।
यह जातक इस दशा के दौरान अपने कुल से निकृष्ट कुल की स्त्री से व्यभिचार के लिए बहुत  बदनाम हुआ। अपथ्य सेवन के कारण चर्मरोग का शिकार हुआ। ध्यान देने वाली बात ये है शनि परमोच्च पर पहुँचने से पहले ही वक्री हो गया था अन्यथा संभव था किसी कुत्सित स्त्री से विवाह करके जातक जीवन भर पछताता अथवा अपथ्य सेवन से अंगहानी या असाध्य रोग का शिकार होता।

प्रश्न 2.- ग्रह लग्न में नीच और नवमांश में उच्च हो तो किसका प्रभाव होगा?
उत्तर- सारावली में कल्याणवर्मा कहते हैं-

स्वेषूच्चभागेषु फलं समग्रं स्वक्षेत्रतुल्यं भवनांशकेषु ।
नीचारिभागेषु जघन्यमेव मध्यं फलं मित्रगृहांशकेषु।। ४५.२२

इससे स्पष्ट होता है कि यदि ग्रह लग्न में  नीच और नवांश में उच्च का हो तो मध्यम फल प्रदान करेगा।
इसमें उच्चफल की अधिकता ही व्यवहार में दिखाई देती है।

-पं. ब्रजेश पाठक “ज्यौतिषाचार्य”
B.H.U., वाराणसी।

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