प्रतिदिन के ज्योतिष शास्त्रीय अभ्यास एवं विद्यार्थियों के द्वारा पठन पाठन कार्य से कुछ न कुछ नए अनुभव आते ही रहते हैं। जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण अनुभव आपके साथ भी साझा करता हूँ जिससे की आपको भी कुछ प्रेरणा मिले।
अभी कुछ समय मुकुल कौशिक नामक विद्यार्थी ने बृहत्पाराशर होराशास्त्र ग्रन्थ के एक श्लोक का अर्थ पूछा था। उस घटना को आपके साथ साझा कर रहा हूँ। उसके साथ हुए बातचित के अंश प्रस्तुत हैं –
प्रश्न कर्ता –
भागा दश त्रयोऽष्टाश्व्यस्तिथ्योऽक्षाभमिता नखाः ।
उच्चात् सप्तमभं नीचं तैरेवांशैः प्रकीर्तितम् ॥ ५१ ॥
आचार्य जी वृहत्पाराशर होरा शास्त्र का यह श्लोक है। सूर्य आदि ग्रहों के परमोच्च अंश हैं। इसका अर्थ कैसे निकालेंगे🙏
मेरा उत्तर – कुछ त्रुटि है।
भागा दश त्रयोऽष्टाश्विस्तिथ्योऽक्षा भमिता नखाः ।
उच्चात् सप्तमभं नीचं तैरेवांशैः प्रकीर्तितम् ॥५१॥
ये श्लोक ऐसा होना चाहिए तभी अर्थ लग पाएगा। कुछ टाइपिंग मिस्टेक होगी।
भागा – अंशाः
दश – 10°
त्रयः – 3°
अष्टाश्विः – 28°
(अश्वि = अश्विनीकुमारौ, संख्यावाची अर्थ द्वौ, अंकानां वामतो गतिः से सजाएँ तो 28)
तिथ्यो – 15°
अक्षाः (इन्द्रियाँ) – 5°
भ (नक्षत्र) – 27°
नखाः (नाखून) – 20°
मिता – समा
इन्हीं अंशों में ही उच्च से सातवीं राशि नीच होती है।
प्रश्न कर्ता – 🙏धन्यवाद: आचार्य:। प्रणाम🙏
यह वार्ता यहाँ प्रश्नकर्ता की ओर से यहाँ पूरी हो गई। पर मेरी ओर से नहीं। क्योंकि मेरी प्रथम शिक्षा यही है कि शास्त्रवाक्यों में सीधे सीधे गलती है ऐसा स्वीकार न करो उसकी तलाश करो प्रर्याप्त समय दो और चिन्तन करो तभी अपने निष्कर्ष को सत्य मानो।
इस बातचित के दस दिनों के बाद….
मेरा उत्तर – इसके बारे में गुरुजी से चर्चा किया था। तो गुरुजी ने कहा सुधारने की जरूरत नहीं है। बृहत्पाराशर के आर्ष ग्रन्थ होने से बहुत सारे अपाणिनीय प्रयोग मिलते हैं। अगर हमलोग इसमें जबरन पाणिनीय प्रयोगानुसार संशोधन करने लगें तो इसका आर्षत्व और इसकी विश्वसनीयता दोनों खत्म हो जाएगी। उसमें सही लिखा है, सही प्रयोग है। प्राचीन ग्रन्थों में अपाणिनीय प्रयोग बहुधा मिलते हैं, इसी से तो उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है इसलिए उन श्लोकों को ऐसे ही रहने देना चाहिए।
प्रश्न कर्ता – जी, गुरु जी ।
- ज्यौतिषाचार्य पं. ब्रजेश पाठक – Gold Medalist