1 – सूर्य – पित्त प्रकृति
स्वास्थ्य का कारक, हृदय, हड्डिया, दायी आंख ।
सिर में दर्द, गंजापन, हृदय रोग, हड्डियों के रोग, मिर्गी, नेत्र रोग, कुष्ट रोग, पेट की बिमारियां, बुखार, दर्द, जलना, रक्त-संचार में गढ़बड़ी (विशेषतः रक्ताल्पता से होने वाले रोग), शस्त्र व गिरने से चोट लगना इत्यादि ।
2- चंद्रमा – कफ तथा कुछ वात प्रकृति ।
शरीर से बाहर निकलने वाले तरल पदार्थ एवं रसायन, मानसिक संरचना, बायीं आंख ।
मानसिक रोग, क्षय रोग, प्रमेहादि रक्त संबंधी रोग, कफ तथा खांसी से बुखार, फेफड़ों में पानी भरना, पानी से होने वाली बिमारियां, जल और जलीय वस्तुओं से भय आदि।
स्त्रियों की माहवारी में गड़बड़ी (अण्डा न बनना एवं अनियमितता आदि) तथा स्त्रियों की प्रजनन प्रणाली के रोग चंद्रमा के कारण होते है । स्त्रियों के स्तन रोग तथा दूध के बहाव का पता भी चंद्रमा से लगाया जाता है।
चंद्रमा एवं मंगल स्त्रियों के मासिक धर्म को नियंत्रित करते हैं।
3- मंगल – पित्त प्रकृति
शरीर में रसायनों की पूर्ति का कारक, सिर, मज्जा, हीमोग्लोबिन, मांसपेशिया, अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ एवं गर्भाशय ।
दुर्घटना, चोट लगना, शल्य चिकित्सा, जल जाना, खून के रोग (व्रणादि रोग), रक्तचाप, पित्त की थैली में stone, पित्तज बुखार, चेचक , बवासीर, गर्भपात, सिर में चोट, लड़ाई में चोट , शस्त्र से चोट तथा गर्दन से ऊपर के अंगों में रोग भी मंगल इंगित करता है।
4 – बुध – वात-पित्त-कफ (अर्थात् त्रिदोषवत्) प्रकृति, त्वचा, गला,कन्धा एवं पीठ, नाक, फेफड़े, दिमाग का अगला हिस्सा।
त्वचा संबंधी रोग (विशेषकर दाद, खाज, खुजली, दाने आदि), मानसिक विचलन, धैर्यहीनता, अभद्र भाषा प्रयोग, बहरापन, कान का बहना, हकलाना, तुतलाना, गूंगापन, नाक-कान-गले के रोग, श्वेत कुष्ट, नपुसंकता, नसों में विकार, स्मृतिदोष, अचानक गिरना, दु:स्वप्न आदि।
4- बृहस्पति – कफ व पित्त
रोग का निवारण करने वाला ग्रह, अमाशय, पित्त की थैली, तिल्ली, अग्न्याशय का कुछ भाग, कान का अंदरूनी भाग, शरीर में चर्बी व आलस्य का कारक। लंबी बीमारी, पित्त की थैली के रोग, मोटापा, शुगर, तिल्ली के रोग, कान के रोग, पीलिया आदि।
5- शुक्र – वात व कुछ कफ प्रकृति।
चेहरा, आंखे, किसी अन्य रोग के कारण नेत्र ज्योति हानि, यौन क्रियाएं, भोग विलास, वीर्य, मूत्रप्रणाली, किडनी, गुर्दे, प्रमेहादि रोग, बालरोग, शिशुरोग, स्त्री एवं पुरुष रोग।
यह एक जलीय ग्रह है और इसका संबंध शरीर के हार्मोन से है विशेषकर स्त्री एवं पुरुष हार्मोन्स से तथा ऐसे रसायनों से जो पुरुषों में पौरुष की एवं स्त्रियों में स्त्रीत्व की वृद्धि करते हैं।
शुक्र यौन विकार, जननांग के रोग तथा मूत्र प्रणाली, श्वेत कुष्ठ रोग, एड्स, नपुंसकता, थायरायड एवं प्रमेहादि रोग।
7- शनि – वात तथा कुछ कफ प्रकृति ।
यह बहुत धीरे चलने वाला ग्रह है और इस कारण इससे होने वाले रोग असाध्य या दीर्घकालिक होते हैं।
शनि का अधिकार क्षेत्र – टांगे, पैर, नाड़ी, बड़ी आंत का अंतिम भाग, लसिका वाहिनी तथा गुदा है। यह लंबे अवधि वाले रोग जैसे कैंसर, गठिया वात, बवासीर, थकान, पैर के रोग व चोट, पत्थर से चोट लगना, सभी प्रकार के वात रोग, मर्छा, मिग्री, माइग्रेन आदि।
8- राहु – शनि जैसे रोग (विशेषकर दुःसाध्य एवं असाध्य रोग)
हिचकी, फोबिया, कुष्ट रोग, त्वचा रोग (विशेषकर फोडे फूँसी इत्यादि), विषाक्तता, छाले, वायरल बिमारियाँ, विषाणुजन्य रोग, उन्माद, सर्पभय, आसानी से ठीक ना होने वाले घाव इत्यादि।
- राहु एवं चंद्र का संबंध – फोबिया, भय, उन्माद, संशय आदि के जनक होता है।
9- केतु – इसकी दशा में बिमारी का पता लगाना मुश्किल है ।
डेंगू, मलेरिया, पेट में कीडे़, स्वाइन फ्लू, वायरल रोग आदि।
केतु का द्वितीय भाव व बुध से संबंध हो तो जन्मजात रोग, तुतलाना, शल्य चिकित्सा ।
रोग निवारण हेतु सर्वसामान्य उपाय
- वेदाधिकार संपन्न जन प्रतिदिन एक माला महामृत्युंजय मंत्र का जप करें अन्य लोग ओम् नमः शिवाय का जप करें।
- तांबे के पात्र में प्रतिदिन सूर्य को जल दे ।
- रोग निवारक अच्युतानन्तगोविन्द मंत्र का दिनभर यथाशक्ति जप करते रहे।
- आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ करें।
- सूर्य के बीज मंत्र – “ओम् घृणिः सूर्याय नमः” इस मंत्र का जप करें तथा किसी भी रोग की बिमारी की दवाई को रविवार से लेना शुरू करें क्योंकि सूर्य नारायण रोग निवारक ग्रह हैं।
- लग्न एवं लग्नेश को मजबूत करने के लिए तत्संबंधी ग्रह के सर्वसामान्य उपाय करें।
- योग्य ज्योतिषी के परामर्श से लग्नेश का रत्न धारण करें ।
साभार संशोधित एवं प्रसारित
© ज्यौतिषाचार्य पं. ब्रजेश पाठक – Gold Medalist