एलर्जी के ज्योतिषीय निदान व उपचार
जिज्ञासु के प्रश्न–
आजकल एलर्जी बहुत से लोगों को हो रही है,कृपया इससे संबंधित लेख या जानकारी हो तो दें, एलर्जी की ज्योतिषीय विवेचना व निदान उपाय आदि कृपया बताएँ ।
मेरा उत्तर-
यह आज के समय के हिसाब से बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न आपने पूछा है, क्योंकि आजकल ज्यादातर लोग इसके शिकार हो रहे हैं और इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है कलिकाल के प्रभाव में आकर पापाचरण करना ।
श्वास कास एवं कफ रोगों का कारण शास्त्रों में इस प्रकार बताया गया है-
कृतघ्नो जायते मर्त्यः कफवान् श्वासकासवान् ।
उष्णज्वरी च नित्यं हि पित्तरोगसमन्वितः ।।
अर्थात्– कृतघ्न व्यक्ति अर्थात् जो उपकार नहीं मानता और उपकार करने पर भी अपकार ही करता है, ऐसा मनुष्य हमेशा ही श्वास कास एवं कफ रोगों तथा पित्त रोगों तथा उष्ण-ज्वरों से दुःखित ही बना रहता है ।
हालाँकि इस रोग का विचार निवास क्षेत्र के पर्यावरणीय स्थिति, प्रदुषण स्तर, व्यक्ति की जीवनशैली-दिनचर्या आदि को देखकर करना चाहिए क्योंकि इनके आधार पर रोग का स्तर प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग हो जाता है । फिर भी कुछ ज्योतिषीय तथ्य रोग का अनुमान लगाने में हमारी मदद कर सकती हैं चिकित्सा शास्त्र के दृष्टिकोण से देखा जाय तो एलर्जी स्वयं में कोई रोग नहीं है बल्कि किसी अन्य कारणों से उत्पन्न होने वाला लक्षण है और कई रोगों का कारण है, शायद इसलिए ज्योतिष में इस रोग के स्वतन्त्र सूत्र या नियम प्राप्त नहीं होते । ज्योतिष में इसे ढूँढना टेढ़ी खीर से कम नहीं है, फिर भी आइये ज्योतिष रुपी समुद्र में गोता लगाकर इसको समझने का और इसके योगायोगों के अनुमान का प्रयास करते हैं ।
परिचय-
पहले तो हम इस बीमारी का गोत्र जान लें की ये किस प्रजाति की बीमारी है, तो इसके योगायोग और उपचार ढूंढने में हमें बड़ी सहायता मिलेगी ?
इस रोग का संस्कृत नाम है- प्रत्यूर्जता । ऊर्ज्ज कहते हैं जीवनी शक्ति को ओज को अर्थात् शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को । प्रति शब्द विपरीत भाव का बोधक है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली जब विपरीत क्रिया करने लगे, अर्थात् बीमारियों से हमारी रक्षा न करके हमें बिमार करने लग जाए तो यही प्रत्यूर्जता है।
अगर पारिभाषिक रूप में इसे समझें तो प्रत्यूर्जता एक स्थिति है जिसमें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी पदार्थ के प्रति असामान्य रूप से प्रतिक्रिया करती है या किसी तत्व से होने वाली अति संवेदनशील प्रतिक्रिया ही प्रत्यूर्जता या एलर्जी है ।
जब हम इस रोग को समझने प्रयास करते हैं तो हमें इसके तीन रूप देखने को मिलते हैं-
- मौसम सम्बन्धी प्रत्यूर्जता– मौसम परिवर्तन के समय इसके लक्षण नाक, आँख, गले व हृदय में कफ के रुप में उभरते हैं, इससे समझ में आता है यह कास रोग है। शरीर की रोगप्रतिरोधक क्रियाप्रणाली के विकृत रहने पर ये रोग होता है |
- भोज्य-भोग प्रत्यूर्जता- कुछ खाने या पीने या किसी वस्तु के प्रयोग करने से पूरे शरीर में या शरीर के किसी खास क्षेत्र की त्वचा में इसके लक्षण उभरते हैं | पाचनशक्ति की कमी रहने से व यकृत की क्रियाप्रणाली शिथिल रहने से ये रोग होता है | लक्षणों के आधार पर यह नाना रोग की श्रेणी में आता है |
- वायु व गंधजन्य प्रत्यूर्जता- जहरीली-गैस, प्रदूषित-वायु या किसी गन्ध-दुर्गन्ध के सम्पर्क में आने श्वसन प्रक्रिया बाधित होती है और इसके लक्षण नाक, गले, हृदय, चेहरे व आँख में उभरते हैं | नाक के आसपास चेहरे की हड्डियों के भीतर नम हवा के रिक्त स्थान हैं, जिन्हें वायुविवर या साइनस (sinus) कहते हैं। साइनस से जनित होने से यह रोग साइनोसाइटिस या वायुविवर शोथ कहलाता है । आयुर्वेद शास्त्र में इस रोग को नासा रोगों के अंतर्गत प्रतिश्याय(जुकाम, कास-श्वास आदि) और पीनस(नजला आदि) रोगों में समाहित किया जाता है | इससे यह श्वास, शोथ(सूजन), नासिका, कंठ, हृदय व मुख, प्रतिश्याय व पीनस रोग सिद्ध होता है।
आइये इसे भी पढ़ें-
ज्योतिषीय विवेचना-
- कास रोग होने से इस रोग के लिए जलचर या नमी वाली राशियाँ उत्तरदायी होती हैं, वे राशियाँ हैं- कुम्भ, मीन, कर्क और वृश्चिक ।
- आरोग्यता का नैसर्गिक कारक होने से सूर्य, जल का श्वासकास रोग का कारक होने से चन्द्रमा व शुक्र, दूषित वायुविकार जन्य रोग होने से शनि, राहु व केतु, आन्तरिक वात रोग व पेशियों व त्वचा पर अपना प्रभाव रखने से बुध, शोथ रोग होने से गुरु ग्रह, रोग प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित होने से मंगल, इस प्रकार सूर्य-चंद्र-मंगल-शनि-राहु-केतु-बुध-गुरु-शुक्र इस रोग के लिए उत्तरदायी ग्रह हैं। कोई स्वतन्त्र रोग न होने से सभी ग्रहों का सम्बन्ध इस रोग से हो जाता है ।
- अब प्रश्न है किस भाव से इसका विचार किया जाए? शारीरिक स्वास्थ्य का विचार करना है अतः लग्न स्थान से, आँख-नाक व गले में लक्षण उभरते हैं अतः द्वितीय भाव से, शारीरिक चयापचय का स्थान होने से तृतीय भाव से, हृदय में भी लक्षण उभरते हैं अतः चतुर्थ भाव से और रोग का विचार षष्ठ स्थान से किया जाता है अतः षष्ठ भाव से और मारक स्थान होने से सप्तम भाव से, इस प्रकार लग्न-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-सप्तम व षष्ठ भाव से इस रोग का मुख्यतया विचार करना चाहिए।
योग विचार-
अब एलर्जी से सम्बन्धित सभी लक्षणों को ध्यान में रखते हुवे विभिन्न रोग योगों की श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है | परन्तु इस श्रृंखला में एलर्जी के पूर्वज्ञान हेतु श्वास कास व पीनस रोग योग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है ।
नासा रोग योग-
- वृहत्पाराशरहोराशास्त्र में द्वादश भाव विचार अ. 16 श्लो. 107 में महर्षि पाराशर षष्ठेश ग्रह के अनुसार रोग का ज्ञान कराते हुए कहते हैं- गुरुणा नासिकायां च अर्थात् यदि गुरु षष्ठेश हो तो नासिका(नाक) में रोग होता है। यह स्थिति कर्क और तुला लग्नों में बनती है।
अपने डेली प्रैक्टिस में भी मैंने अनुभव किया है कि एलर्जी की शिकायत तुला और कर्क लग्नों में ज्यादा होती है।
- कुजभृगुरविसुतयोगे नासारोगः प्रजायते जन्तोः । नानाव्याधिक्लेशा रिपुजा भीतिर्भवेद्विषमा ।। -वी.सिं. नासारोगाधिकार
अर्थात्- कुंडली में यदि मंगल, शुक्र एवं शनि की युति हो तो जातक नासारोग होते हैं। साथ ही वह अनेक प्रकार की व्याधियों, शत्रुकष्ट और भय से पीड़ित रहता है।
मुख रोग योग-
महर्षि पाराशर बताते हैं-
- लग्नाधिपः कुजक्षेत्रे बुधस्य यदि संस्थितः । यत्र कुत्र स्थितो ज्ञेन वीक्षितो मुखरुक्प्रदः ।। –वृ.पा.हो.शा.अ. 16श्लो-108
अर्थात्- लग्नेश मंगल या बुध की राशि में स्थित हो और बुध ग्रह द्वारा देखा जाता हो तो मुख रोग होता है। साइनोसाईटिस मुख के क्षेत्र में ही होता है अतः इस योग से साइनसजन्य रोग स्वतः ही इंगित है ।
- वाचस्पतौ वाऽऽस्फुजिति क्षतेशे दृष्टे खलैर्लग्नग आस्यशोफी । -वीरसिंहावलोक-श्वयथुरोगाधिकार
अर्थात्- यदि जातक की कुंडली में शुक्र या गुरु षष्ठेश होकर (अर्थात् धनु, वृष, कर्क या तुला लग्न हो) लग्न में स्थित हो और उसपर पापग्रह कि दृष्टि हो तो जातक मुखक्षेत्र में शोफ(सूजन) रोग होगा।
श्वास कास व पीनस रोग योग-
- कासश्वासक्षयजनिरुजं भानुभौमाहिदृष्टे षष्ठे सौरे गुलिकसहिते सौम्यदृग्योगहीने । रिःफेपापेशशिनिरिपुगे मानुजे रन्ध्रयाते पापांशस्थे तनुगृहपतौ पीनसं रोगमेति ॥ -जा.पा. अ.6 श्लो.96
अर्थात्- षष्ठ स्थान में शनि व गुलिक साथ हों और सूर्य, मंगल या राहु से युक्त अथवा दृष्ट हों और उन पर शुभग्रह की दृष्टि न हो तो कास रोग (कफ जन्य रोग- जुकाम, सर्दी, साइनोसाइटिस, खाँसी, नजला, एलर्जी आदि) अथवा श्वास रोग (अस्थमा आदि) अथवा क्षयरोग (टी.बी. आदि) होते हैं। यदि द्वादश भाव में कोई पापग्रह हो, षष्ठ में चन्द्रमा हो, अष्टम में शनि हो और लग्नेश पापग्रह के नवमांश में हो तो जातक पीनस रोग (उत्कट नजला) का शिकार होता है ।
- सूर्येकुलीरयाते बुधेन दृष्टे बिगतनेत्रः । कफमारुतरोगार्तः परस्वहारी विलोममतिचेष्टः।। -वीरसिंहावलोक
अर्थात्- यदि जातक की जन्मकुण्डली में कर्क राशि में बुध स्थित हो और इस बुध पर सूर्य की दृष्टि पड़ रही हो तो जातक को कास श्वास एवं वातश्लेष्म जनित अन्यान्य व्याधियाँ उत्पन्न होती रहती है | साथ ही जातक दूसरों की सम्पति का हरण करने वाला एवं जनता के साथ चालाकियों से परिपूर्ण चेष्टाएँ करता रहता है | इन परिस्थिति का व्यक्ति प्रायः नेत्रहीन अथवा दृष्टिमान्द्य से ग्रसित रहता है ।
इन समस्त कारणों को शान्त करने के लिए सूर्य के मन्त्र का जप एवं होम दानादि कर्म करना चाहिए ।
- मान्द्यस्थाने मंदगे मांदि युक्ते सृक्यातेन प्रेक्षणत्वं प्रयाते । कल्याणानामन्वयेक्षामुक्ते जातोजन्तुः सक्षयश्वासकासः।। -वीरसिंहावलोक
अर्थात्- यदि जातक की कुण्डली के षष्ठ स्थान में गुलिक युक्त शनि हो और इस स्थान पर सूर्य, मंगल एवं राहु की दृष्टि पड़ रही हो तथा अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं पड़ रही हो तो जातक क्षयज कास अथवा क्षयज श्वास रोग से पीड़ित रहता है |
- षष्ठे शनौ सुगुलिके रव्यारफणिवीक्षिते । शुभैर्नदृष्टेयुक्ते वा श्वासकासक्षयादियुक् ।। -स.चि.अ.5 श्लो.107
अर्थात्- षष्ठ भाव में शनि के साथ गुलिक हो और सूर्य, मंगल या राहु से दृष्ट हो तथा कोई शुभग्रह उसे न देखता हो तो जातक श्वास कास आदि रोग से ग्रस्त रहता है।
- लग्ने रवौ भूमिसुतेन दृष्टे गुल्मक्षयश्वासनिपीडितः स्यात् । -जा. पा. अ.6 श्लो.62
अर्थात्- लग्नगत सूर्य यदि मंगल से दृष्ट हो तो कोई गाँठ, टी.बी. या साँस रोग होता है।
- गौर द्युतौ गर्हितखेचरान्तरे कृष्ण प्रभेस्तेथ भगे मृगानने । मन्दारमध्ये हिमधाम्नि विद्रधिप्लीहक्षयश्वासगुल्मभागजनः।। -वीरसिंहावलोक
अर्थात्- यदि जातक की कुण्डली में चन्द्रमा दो पाप ग्रहों के बीच में हो और सप्तम स्थान में शनि स्थित हो अथवा मकर राशि में सूर्य स्थित हो एवं शनि मंगल के बीच में चन्द्रमा आ गया हो तो जातक विद्रधि, क्षय, श्वास अथवा गुल्म रोग से ग्रसित रहता है |
- षष्ठे चन्द्रे रन्ध्रे मन्देऽन्त्ये पापपे लग्नपे पापांशे पीनसरोगः ।। जा.त.ष.वि.-93
अर्थात्- षष्ठ स्थान में चन्द्रमा, अष्टम स्थान में शनि व द्वादश स्थान में पापग्रह स्थित हो और लग्नेश पापग्रह के नवांश में हो तो मनुष्य को पीनस रोग होता है।
- क्षतौ विधौ क्षये यमे क्षतौ खले खलांशके । तनूपतौ समुद्भवः समेति पीनसामयम् ।। -ज्योतिस्तत्वम्
अर्थात्- यदि जातक की कुंडली में षष्ठस्थान में चन्द्रमा, अष्टम स्थान में शनि और द्वादश भाव में पापग्रह हो एवं लग्नेश पापग्रह के नवांश में हो तो जातक पीनस रोगों से ग्रसित रहता है।
- षष्ठे चन्द्रे शनौ रन्ध्रे व्ययेपापे विलग्नपे । पापांशकसमायुक्ते पीनसं रोगमादिशेत् ।। -स.चि.अ.5श्लो.109
अर्थात्- षष्ठ में शनि व अष्टम में चन्द्र हो, व्ययस्थान में पापग्रह हो और लग्नेश पापनवांश या क्रूरषष्ट्यंश में गया हो पीनस रोग होगा ऐसा कहना चाहिए ।
कफजन्य रोग योग-
- सप्तम भाव में बुध यदि पापग्रह से युक्त हो या पापग्रह से देखा जाता हो तो वातजन्य या कफजन्य रोग होते हैं।
- षष्ठेश यदि 6.8 भावों में गए हों और साथ में चन्द्रमा हो तो मुख यदि साथ में मंगल हो तो गले में रोग होता है ।
- मन्दार्क योगे कफरोगः || -जातकतत्वम् षष्ठ विवेक 152
अर्थात्- सूर्य व शनि का योग अर्थात् चतुर्विध संबंधों में से कोई योग बनने पर मनुष्य कफरोग (कास,श्वास, खाँसी, जुकाम आदि) से पीडित होता है।
- श्लेष्मामयं बुधयुतेऽवनिजे रिपुस्थे क्रुरांशके यदि सितेन्दुसमीक्षिते च । जा.पा. अ.6 श्लो.65
अर्थात्- षष्ठस्थान में बुध मंगल साथ हों और मंगल क्रूर नवांशादि में हो साथ ही उसपर चन्द्रमा या शुक्र की दृष्टि हो इसमें श्लेष्माजन्य(कफ या बलगम संबंधी) रोग होता है।
हृदय रोग योग-
- हृद्रोगी पञ्चमे पापे सपापे च रसातले । क्रूरषष्ठ्यंशसंयुक्ते शुभदृग्योगवर्जिते ॥ जा.पा.अ.13श्लो.69
अर्थात्- चतुर्थ व पंचम भावों में पापग्रह हों साथ ही पापग्रह क्रूर षष्ठ्यंश में गए हों और उनपर किसी शुभग्रह की दृष्टि न हो तो मनुष्य हृदयरोगी होता है।
कण्ठ रोग योग–
- नीचे तृतीयेऽरिगृहे विमूढे पापेक्षिते तद्गलरोगवान् स्यात् । विषप्रयोगाद्विषभक्षणाद्वा तेषामभावेऽर्थविनाशनार्थः ॥ -जा.पा. अ.6 श्लो.65
अर्थात्- तृतीय भाव में यदि कोई ग्रह नीचगत, शत्रुक्षेत्री, अस्त और पापग्रह से दृष्ट हो तो गले में विषसंक्रमण या विषभक्षण से रोग होता है। पापग्रह की दृष्टि न हो तो धन का नाश होता है। विषप्रयोग से हमारे द्वारा जहरीली या प्रदूषित वायु श्वास के रुप में लेने का भाव भी द्योतित हो सकता है । इसी से साइनोसाइटिस व एलर्जी के रोग होते हैं।
- सज्ञे सोत्थपे गलरोगः।।
- पापे सोत्थे गलरोगः।।
- सोत्थे गुलिके विशेषाद् गलरोगः ।।
- ज्ञार्थेशौ सराहुकेत्वोः षष्ठे तमस्थर्क्षेशयुतौ तालुरोगः ।।
- सपापे चन्द्रे मुखे कण्ठरोगः ।। -जातकतत्वम् षष्ठ विवेक 80-84
अर्थात्- तृतीयेश यदि बुध के साथ हो तो गले में रोग होता है। तृतीय स्थान में यदि पापग्रह हो तो गले में रोग होता है। तृतीय स्थान में यदि गुलिक हो तो विशेष रूप से गले में रोग होता है। बुध व द्वितीयेश यदि राहु-केतु के साथ षष्ठ स्थान में हों तथा राहु के अधिष्ठित राशि के स्वामी से युत हों तो तालु प्रदेश में रोग होता है। पापग्रह से युक्त चन्द्रमा हो तो मनुष्य मुख या कण्ठ में रोग प्राप्त करता है ।
शीतरोगी योग-
- सपापे पापदृष्टे चेन्दौ लग्ने शीतरुक् ।। -जातकतत्वम् षष्ठ विवेक 106
अर्थात्- पापग्रह से युक्त व पापग्रहों से दृष्ट चन्द्रमा यदि लग्नस्थ हो तो मनुष्य शीतरोगी (मौसम संबंधी एलर्जी, सर्दी जुकाम आदि का रोगी) होता है।
विविध रोग योग-
- मन्दे पापयुतदृष्टेऽन्त्ये वा त्रिकोणे व्याधियुतः ।।
- लाभेशे षष्ठे नानारोगवान् ।।
- शुक्रारौ सप्तमेऽधिरोगः ।।
- शन्यारौ षष्ठे राह्वर्कदृष्टौ लग्नेशेऽबले दीर्घरोगी ।। जा.त. ष.वि.55-58
शनि यदि पापग्रह से युत या दृष्ट होकर द्वादश भाव या त्रिकोण भाव में हो तो मनुष्य बीमार रहता है। लाभेश यदि षष्ठभाव में हो तो मनुष्य अनेक बिमारियों से पीड़ित रहता है। शुक्र और मंगल दोनों सप्तम भाव में स्थित हों तो मनुष्य कई रोगों से पीड़ित रहता है। शनि व मंगल यदि षष्ठ स्थान में हों तथा राहु व सूर्य से दृष्ट हों और लग्नेश निर्बल हो तो मनुष्य लम्बी बिमारी से पीड़ित रहता है।
- त्रिकेऽष्टमेशेनित्यरोगी ।। जा.त.ष.वि.
अष्टमेश यदि 6.8.12 भावों में हो तो व्यक्ति सदा रोगयुक्त रहता है।
एलर्जी का उपचार-
- स्वच्छ वातावरण में रहना, पौष्टिक भोजन करना, नियमित योगाभ्यास व व्यायाम करना, पर्याप्त मात्रा में जल का सेवन करना इसका प्राथमिक और सर्वसामान्य उपचार है |
- आयुर्वेद के अनुसार गिलोय, हरीतकी व त्रिफला इस रोग के उपचार हेतु बहुत कारगर औषधियाँ हैं |
- होमियोपैथ में Aconite, Arsenic Album, Sinapis Nigra, Justicia Adhatoda-Bakasa आदि कई अच्छी औषधियाँ हैं |
- एलोपैथ में भी कई एन्टी एलर्जिक औषधियाँ बताई जाती हैं, लेकिन वो सिर्फ रोग के वेग को कम कर सकती हैं अर्थात उनसे रोग में आराम मिल सकता है, पर ये पूरी तरह रोग को ठीक करने में सक्षम नहीं हैं |
- ज्योतिष के अनुसार इस रोग के उपचार के लिए बाधक ग्रह की पहचान कर के उससे संबंधित पदार्थों का दान करना या उसका जप करना/कराना ठीक रहता है |
- रत्न विज्ञान के अनुसार पेरिडॉट रत्न धारण करना इसके लिए बहुत उत्तम रहता है |
- स्मृतियों के अनुसार 3 बार यवमध्य-चान्द्रायण व्रत करना चाहिए |
- धर्मशास्त्र के अनुसार अग्निदूतम् सूक्त के मन्त्रों से चारू-घृतादि द्रव्यों का 10 हजार 108 बार हवन कराना चाहिये और 50 ब्राह्मणों को संतृप्ति के साथ भोजन कराना चाहिए |
- धर्मशास्त्रों के अनुसार नियमित श्रीसूक्त का पाठ करने या कराने से इस रोग के उपचार में बहुत मदद मिलती है |
शोधकर्ता-
पं. ब्रजेश पाठक “ज्यौतिषाचार्य”
हरि ऊं आचार्य जी सादर प्रणाम 🌸🙏🌸
अति लाभदायक लेख।शत शत नमन 🌹🙏🌹
शुभाशीर्वाद