ज्ञ’ वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि- संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ प्रत्येक वर्ण के उच्चारण स्थान और ध्वनि परिवर्तन के आगमलोपादि नियमोँ की विस्तार से चर्चा है। फिर भी “ज्ञ” के उच्चारण पर समाज मेँ बडी भ्रांति है। और जब सनातन वैदिक हिँदू धर्म की पीठ पर छुरा घोँपने वाले कुलवर्णादिविहीन उपद्रवियोँ को तथाकथित धर्माचार्योँ की अनदेखी से खुली छूट मिली हो तो इस भ्रांति का व्यापक होना नैसर्गिक ही है!
ज्+ञ्=ज्ञ
कारणः-‘ज्’ चवर्ग का तृतीय वर्ण है और ‘ञ्’ चवर्ग का ही पंचम वर्ण है।
जब भी ‘ज्’ वर्ण के तुरन्त बाद ‘ञ्’ वर्ण आता है तो ‘अज्झीनं व्यञ्जनं परेण संयोज्यम्’ इस महाभाष्यवचन के अनुसार
‘ज् +ञ'[ज्ञ] इस रुप मेँ संयुक्त होकर ‘ज्य्ञ्’ ऐसी ध्वनि उच्चारित होनी चाहिये।।
किँतु ये भी इन हिँदू धर्म के दीमकोँ का एक भ्रामक मत है।
प्रिय मित्रोँ! “ज्ञ” वर्ण का यथार्थ तथा शिक्षाव्याकरणसम्मत शास्त्रोक्त उच्चारण ‘ग्ञ्’ ही है। जिसे हम सभी परंपरावादी लोग सदा
से ही “लोक” व्यवहार करते आये हैँ।
कारणः- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य 2/21/12 का नियम क्या कहता है-
ज्+ञ्=ज्ञ
कारणः-‘ज्’ चवर्ग का तृतीय वर्ण है और ‘ञ्’ चवर्ग का ही पंचम वर्ण है।
जब भी ‘ज्’ वर्ण के तुरन्त बाद ‘ञ्’ वर्ण आता है तो ‘अज्झीनं व्यञ्जनं परेण संयोज्यम्’ इस महाभाष्यवचन के अनुसार
‘ज् +ञ'[ज्ञ] इस रुप मेँ संयुक्त होकर ‘ज्य्ञ्’ ऐसी ध्वनि उच्चारित होनी चाहिये।।
किँतु ये भी इन हिँदू धर्म के दीमकोँ का एक भ्रामक मत है।
प्रिय मित्रोँ! “ज्ञ” वर्ण का यथार्थ तथा शिक्षाव्याकरणसम्मत शास्त्रोक्त उच्चारण ‘ग्ञ्’ ही है। जिसे हम सभी परंपरावादी लोग सदा
से ही “लोक” व्यवहार करते आये हैँ।
कारणः- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य 2/21/12 का नियम क्या कहता है-
स्पर्शादनुत्तमादुत्तमपराद् आनुपूर्व्यान्नासिक्याः।।
इसका अर्थ है- अनुत्तम, स्पर्श वर्ण के तुरन्त बाद यदि उत्तम स्पर्श वर्ण आता है तो दोनोँ के मध्य मेँ एक नासिक्यवर्ण का आगम होता है।
यही नासिक्यवर्ण शिक्षा तथा व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ यम के नाम से प्रसिद्ध है। ‘तान्यमानेके’ (तै॰प्रा॰2/21/13) इस नासिक्य वर्ण को
ही कुछ आचार्य ‘यम’ कहते हैँ। प्रसिद्ध शिक्षाग्रन्थ ‘नारदीयशिक्षा’ मेँ भी यम का उल्लेख है।
यही नासिक्यवर्ण शिक्षा तथा व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ यम के नाम से प्रसिद्ध है। ‘तान्यमानेके’ (तै॰प्रा॰2/21/13) इस नासिक्य वर्ण को
ही कुछ आचार्य ‘यम’ कहते हैँ। प्रसिद्ध शिक्षाग्रन्थ ‘नारदीयशिक्षा’ मेँ भी यम का उल्लेख है।
अनन्त्यश्च भवेत्पूर्वो ह्यन्तश्च परतो यदि। तत्र मध्ये यमस्तिष्ठेत्सवर्णः पूर्ववर्णयोः।।
औदव्रजि के ‘ऋक्तंत्रव्याकरण’ नामक ग्रंथ मेँ भी ‘यम’ का स्पष्ट उल्लेख है।
‘अनन्त्यासंयोगे मध्ये यमः पूर्वस्य गुणः’ अर्थात् वर्ग के शुरुआती चार वर्णो के बाद यदि वर्ग का पाँचवाँ वर्ण आता है तो दोनो के
बीच ‘यम’ का आगम होता है,जो उस पहले अनन्तिम-वर्ण के समान होता है।
प्रातिशाख्य के आधार पर यम को परिभाषित करते हुए सरल शब्दों मेँ यही बात भट्टोजी दीक्षित भी
लिखते हैँ-
“वर्गेष्वाद्यानां चतुर्णां पंचमे परे मध्य यमो नाम पूर्व सदृशो वर्णः प्रातिशाख्ये
प्रसिद्धः” -सि॰कौ॰12/ (8/2/1सूत्र पर)
भट्टोजी दीक्षित यम का उदाहरण देते हैँ।
पलिक्क्नी ‘चख्खनतुः’ अग्ग्निः ‘घ्घ्नन्ति’।
यहाँ प्रथम उदाहरण मेँ क् वर्ण के बाद न् वर्ण आने पर बीच मेँ क्
का सदृश यम कँ(अर्द्ध) का आगम हुआ है। दूसरे उदाहरण मेँ खँ कार तथैव गँ
कार यम, घँ कार यम का आगम हुआ है।
अतः स्पष्ट है कि यदि अनुनासिक स्पर्श वर्ण के तुरंत बाद अनुनासिक स्पर्श वर्ण आता है तो उनके मध्य मेँ अनुनासिक स्पर्श वर्ण के सदृश यम का आगम होता है।
प्रकृत स्थल मेँ-
ज् + ञ्
इस अवस्था मेँ भी उक्त नियम के अनुसार यम का आगम होगा।
किस अनुनासिक वर्ण के साथ कौन से यम का आगम होगा।विस्तारभय से सार रुप दर्शा रहे हैँ। तालिक देखेँ-
स्पर्श अनुनासिक वर्ण यम
क् च् ट् त् प् कँ्
ख् छ् ठ् थ् फ् खँ्
ग् ज् ड् द् ब् गँ्
घ् झ् ढ् ध् भ् घँ्
यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि यम के आगम मेँ जो’पूर्वसदृश’ पद प्रयुक्त हुआ है , उसका आशय वर्ग के अन्तर्गत संख्याक्रमत्वरुप सादृश्य से है, सवर्णरुप सादृश्य से नहीँ। ये बात उव्वट और माहिषेय के भाष्यवचनोँ से भी पूर्णतया स्पष्ट है । जिसे भी हम विस्तारभय से छोड रहे हैँ।
अस्तु हम पुनः प्रक्रिया पर आते हैँ-
ज् ञ् इस अवस्था मेँ तालिका के अनुसार ‘ग्’यम का आगम होगा-
ज् ग् ञ्
ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर चोःकु [अष्टाध्यायी सूत्र 8/2/30] सूत्र प्रवृत्त होता है।
‘ज्’ चवर्ग का वर्ण है और ‘ग’ झल् प्रत्याहार मेँ सम्मिलित है, अतः इस सूत्र
से ‘ज्’ को कवर्ग का यथासंख्य ‘ग्’ आदेश हो जायेगा। तब वर्णोँ की स्थिति होगी-
ग् ग् ञ्
इस प्रकार हम देखते हैँ कि ज् का संयुक्त रुप से ‘ज्ञ’ उच्चारण की प्रक्रिया मेँ उपर्युक्त विधि से ‘ग् ग् ञ्’ इस रुप से उच्चारण होता है। यहाँ जब ज् रुप ही शेष नहीँ रहा तो ‘ज् ञ्’ इस ध्वनिरुप मेँ इसका उच्चारण कैसे हो सकता है? अतः ‘ज्ञ’ का सही एवं शिक्षाव्याकरणशास्त्रसम्मत उच्चारण ‘ग्ञ्’ ही है।।
बीच ‘यम’ का आगम होता है,जो उस पहले अनन्तिम-वर्ण के समान होता है।
प्रातिशाख्य के आधार पर यम को परिभाषित करते हुए सरल शब्दों मेँ यही बात भट्टोजी दीक्षित भी
लिखते हैँ-
“वर्गेष्वाद्यानां चतुर्णां पंचमे परे मध्य यमो नाम पूर्व सदृशो वर्णः प्रातिशाख्ये
प्रसिद्धः” -सि॰कौ॰12/ (8/2/1सूत्र पर)
भट्टोजी दीक्षित यम का उदाहरण देते हैँ।
पलिक्क्नी ‘चख्खनतुः’ अग्ग्निः ‘घ्घ्नन्ति’।
यहाँ प्रथम उदाहरण मेँ क् वर्ण के बाद न् वर्ण आने पर बीच मेँ क्
का सदृश यम कँ(अर्द्ध) का आगम हुआ है। दूसरे उदाहरण मेँ खँ कार तथैव गँ
कार यम, घँ कार यम का आगम हुआ है।
अतः स्पष्ट है कि यदि अनुनासिक स्पर्श वर्ण के तुरंत बाद अनुनासिक स्पर्श वर्ण आता है तो उनके मध्य मेँ अनुनासिक स्पर्श वर्ण के सदृश यम का आगम होता है।
प्रकृत स्थल मेँ-
ज् + ञ्
इस अवस्था मेँ भी उक्त नियम के अनुसार यम का आगम होगा।
किस अनुनासिक वर्ण के साथ कौन से यम का आगम होगा।विस्तारभय से सार रुप दर्शा रहे हैँ। तालिक देखेँ-
स्पर्श अनुनासिक वर्ण यम
क् च् ट् त् प् कँ्
ख् छ् ठ् थ् फ् खँ्
ग् ज् ड् द् ब् गँ्
घ् झ् ढ् ध् भ् घँ्
यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि यम के आगम मेँ जो’पूर्वसदृश’ पद प्रयुक्त हुआ है , उसका आशय वर्ग के अन्तर्गत संख्याक्रमत्वरुप सादृश्य से है, सवर्णरुप सादृश्य से नहीँ। ये बात उव्वट और माहिषेय के भाष्यवचनोँ से भी पूर्णतया स्पष्ट है । जिसे भी हम विस्तारभय से छोड रहे हैँ।
अस्तु हम पुनः प्रक्रिया पर आते हैँ-
ज् ञ् इस अवस्था मेँ तालिका के अनुसार ‘ग्’यम का आगम होगा-
ज् ग् ञ्
ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर चोःकु [अष्टाध्यायी सूत्र 8/2/30] सूत्र प्रवृत्त होता है।
‘ज्’ चवर्ग का वर्ण है और ‘ग’ झल् प्रत्याहार मेँ सम्मिलित है, अतः इस सूत्र
से ‘ज्’ को कवर्ग का यथासंख्य ‘ग्’ आदेश हो जायेगा। तब वर्णोँ की स्थिति होगी-
ग् ग् ञ्
इस प्रकार हम देखते हैँ कि ज् का संयुक्त रुप से ‘ज्ञ’ उच्चारण की प्रक्रिया मेँ उपर्युक्त विधि से ‘ग् ग् ञ्’ इस रुप से उच्चारण होता है। यहाँ जब ज् रुप ही शेष नहीँ रहा तो ‘ज् ञ्’ इस ध्वनिरुप मेँ इसका उच्चारण कैसे हो सकता है? अतः ‘ज्ञ’ का सही एवं शिक्षाव्याकरणशास्त्रसम्मत उच्चारण ‘ग्ञ्’ ही है।।
श्रीमान शंकर सन्देश द्वारा प्रेषित
जय श्री राम !!!
प्रो.प्रमोदकुमारशर्मा
विभागाध्यक्ष, व्याकरण
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय