अबध्य शत्रु

अबध्य शत्रु

हमारे समाज में यह प्रचलित शब्द है। माँ जब हम भाई-बहनों से बहुत परेशान हो जाती थी बोलतीं कि तुमलोग अबध्य शत्रु हो।
मैं इसका मतलब नहीं जानता था तो मैने एक दिन जब माँ को शान्त प्रसन्न मन देखा तो पूछ लिया माँ आप हमलोगों को गुस्से में अबध्य शत्रु क्यों कहती हैं। इसका मतलब क्या होता? माँ को बहुत तेज हँसी आई फिर उन्होंने बताया कि इसका मतलब होता है ऐसा शत्रु जिसे हम मार नहीं सकते, अगर गुस्से में आकर मैं तुम्हें पिटाई करुँ तो मुझे ही कष्ट होगा। मुझे ये शब्द बड़ा अच्छा लगा, क्या बात है, अबध्य शत्रु!

मैं आपको कहानी सुनाने नहीं आया हूँ, बल्कि एक बहुत वैज्ञानिक तथ्य बतलाने वाला हूँ।
अगस्त सितम्बर में अक्सर लोग बिमार पड़ते हैं और ज्यादातर लोगों को सर्दी, खाँसी, ज्वर, वायरल फीवर आदि समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। क्या आप जानते हैं कि ये बिमारियाँ विषाणु और जिवाणु जनित होती हैं?
जी हाँ वही षटकोणीय आकृति वाला सूक्ष्म परजीवि जिसके बारे में आपने आठवीं कक्षा में पढ़ा था। इनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है क्योंकि ये हमारी तरह जटिलतम संरचना नहीं हैं, संरचना जितनी सरल होगी परजीविता उतनी ही बढ़ेगी।
विषाणु प्रोटिन खोल से घिरे हुए एक या एक से अधिक न्यूक्लिक अम्ल के टूकड़े हैं। न्यूक्लिक अम्ल मतलब आर.एन.ए या डी.एन.ए दोनों एक साथ नहीं। कभी कभी प्रोटिन की खोल के ऊपर वसा की एक और खोल होती है बस।

जीवाणु क्या है? जीवाणु विषाणु से सौ गुना या और भी ज्यादा बड़े नन्हीं कोशिकाएँ हैं। जिसका एक शरीर जीवन जीवन-संचालक-एन्जाइम में तमाम रासायनिक प्रक्रियाओं को पूरा करने वाले दूसरे शरीर का रक्षा कवच है।
विषाणु के पास इनमें से क्या है? प्रोटीन की खोल और न्यूक्लिक अम्ल वो भी उसने उस कोशिका से लिया है जिसमें वो पनपा है! मतलब अपना कुछ है ही नहीं?

जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए आज वैज्ञानिकों ने कई प्रतिजैविक(Antibiotics) बना लिए हैं। आप भी बहुत सारी बीमारियों में एन्टिबायोटिक दवाएँ खाते हैं। ये एन्टिबायोटिक दवाएँ हमारे शरीर में फैल रहे जिवाणुओं की क्रियाओं को रोक देता है और आप स्वस्थ अनुभव करने लगते हैं।

लेकिन प्रसंगवश आपको ये भी बताता चलूँ कि हमारे शरीर के लिए बहुत सारे जीवाणु लाभकारी भी होते हैं। जब हम एन्टिबायोटिक दवाएँ खाते हैं तो केवल हमारे शत्रु जीवाणु नहीं बल्कि मित्र जीवाणु भी मरते हैं और साथ ही हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होती है। तो अब समझ में आया कि ये जीवाणु हमारे अबध्य शत्रु कैसे हैं??
इससे भी बड़ा और भयंकर अबध्य शत्रु है विषाणु।
हम विषाणु का क्या करें???????
वह तो सबकुछ हमारा ही इस्तेमाल कर रहा है। हमारी ही कोशिकीय संरचना में वह पनप रहा है विकसित हो रहा है! उसको नष्ट करने का मतलब है खुद को ही मार डालना। सबसे बड़ी बात है कि ये विषाणु बहुरुपिया होता है, यदि एन्टिवायरल बना भी लें तो ये तुरन्त अपनी संरचना बदल लेगा। तुम डाल डाल मैं पात पात मारो कैसे मारते हो?

इसलिए आपने देखा होगा बहुत सारी बीमारियों में डॉक्टर अंग काट कर अलग कर देता है। इसलिए आज भी डॉक्टरों के पास जुकाम, डेंगी, एचआईवी,कैंसर जैसी बिमारियों का ईलाज नहीं है।
विषाणु से लड़ना आत्मघाती हमले की तरह है।

अगली कड़ी में इन दोनों से लड़ने का आयुर्वेदिक उपाय लेकर मिलूँगा।

!!जय जय शिव शम्भु!!

– ब्रजेश पाठक “ज्यौतिषाचार्य”

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