भद्रा पर सम्पूर्ण विवेचन
भद्रा का पौराणिक आख्यान-
पूर्वकाल में जब देवताओ और असुरो का युद्ध हुआ तो देवगण हारने लगे तब शिवजी को क्रोध आ गया शिवजी की आँखे एकदम लाल हो गयी, दशों दिशाएं कांपने लगी इसी समय शिवजी की दृष्टि उनके हृदय पर पड़ी और उसी समय एक गधी के सामान गरदन सिंह के समान सात हाथो से व तीन पैरों से युक्त कौड़ी के समान नेत्र पतला शरीर कफन जैसे वस्त्रो को धारण किये हुए धुम्रवर्ण की कान्ति से युक्त विशाल शरीर धारण किये हुए एक कन्या की उत्पत्ति हुई जिसका नाम “भद्रा” था। उसने देवताओं की तरफ से असुरो से युद्ध करते हुए असुरों का विनाश कर डाला, देवताओ की विजय हुई |
तभी से भद्रा को करणों में गिना जाने लगा यह भद्रा अब भूख से व्याकुल होने लगी तब उसने भगवान शिवजी से कहा हे मेरे उत्पत्तिकर्ता मुझे बहुत भूख लग रही है, मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करिये।
तब शिवजी ने कहा :- विष्टि नामक करण में जो भी मंगल या शुभ कार्य किये जाएँ तुम उसी कर्म के पुण्यों का भक्षण करो और अपनी भूख मिटाओ | इसलिए भद्राकाल में किये जाने वाले सभी मांगलिक कार्यों की सिद्धि को ये अपनी लपलपाती सात जीभों से भक्षण करती है, इसीलिए भद्राकाल में शुभ मांगलिक कार्य नही किये जाते है।
भद्रा पर ज्योतिषीय विचार-
ग्यारह करणों में से सातवें (चर करण) करण विष्टि को ही भद्रा कहा जाता है |
शुक्लेपूर्वार्धेष्टमीपंचदश्योर्भद्रैकादश्यां चतुर्थ्याः परार्धे ।
कृष्णेऽन्यार्धे स्यात्तृतीयादशम्योः पूर्वे भागे सप्तमीशम्भुतिथ्योः ।।
मु. चि. शु.प्र. श्लो.43
अर्थात्- भद्रा शुक्लपक्ष में अष्टमी एवं पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्ध में और चतुर्दशी एवं एकादशी तिथि के उत्तरार्ध में रहा करती है | इसी प्रकार कृष्णपक्ष में यह सप्तमी एवं चतुर्दशी तिथि के पूर्वार्ध में और तृतीया एवं दशमी तिथि के उत्तरार्ध में रहा करती है |
वैसे तो सभी शुभ कार्यों में इसे वर्जित किया जाता है परन्तु श्रावणी उपाकर्म और होलिकादहन इसमें विशेष रूप से निषिध्द हैं |
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भद्रा अंग विभाग–
भद्रा के मुख और पुच्छ का ही विचार मुख्यतः किया जाता है, तिथियों में भद्रा के मुख व पुच्छ के ज्ञान हेतु श्लोक प्रस्तुत है-
पञ्चद्वयाद्रिकृताष्टरामरसभूयामादिघट्यः शराः,
विष्टेरास्यमसद्गजेन्दुरसरामाद्र्यश्विबाणाब्धिषु ।
यामेष्वन्त्यघटीत्रयं शुभकरं पुच्छं तथा वासरे,
विष्टिस्तिथ्यपरार्धजा शुभकरी रात्रौ तु पूर्वार्धजा ।।
मु.चि. शु.प्र. श्लो.44
अर्थात्- शुक्लपक्ष की चतुर्थी में 5 वें प्रहर की आदि की 5 घटी, अष्टमी में दूसरे प्रहर की आदि की 5 घटी, एकादशी मे 7 वें प्रहर के आदि की 5 घटी, पूर्णिमा में चौथे प्रहर की आदि 5 घटी और कृष्णपक्ष की तृतीया में 8 वें प्रहर की आदि 5 घटी, सप्तमी में तीसरे प्रहर की आदि 5 घटी, दशमी मे छठे प्रहर प्रहर की आदि 5 घटी, चतुर्दशी में प्रथम प्रहर के आदि 5 घटी भद्रा का मुख है, यह अशुभ होता है |
इसी तरह शुक्लपक्ष की चतुर्थी में 8 वें प्रहर की अन्तिम 3 घटी, अष्टमी में प्रथम प्रहर की अन्तिम 3 घटी, एकादशी में छठे प्रहर की अन्तिम 3 घटी, पूर्णिमा में तीसरे प्रहर की अन्तिम 3 घटी, इसी तरह कृष्णपक्ष में क्रम से तृतीया, सप्तमी, दशमी, चतुर्दशी में सातवें, दूसरे, पांचवे और चौथे प्रहर की अन्तिम 3 घटी भद्रा का पुच्छ है, यह शुभ होता है | दिन में तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा और रात्रि में पूर्वार्ध की भद्रा शुभ है |
- 5 घटी = 2 घंटे तथा 3 घटी = 1 घंटे 24 मिनट |
- यहाँ पर तिथि को 60 घटी का मानकर औसत आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं, शुद्ध आकड़ों के लिए ऐकिक नियम का प्रयोग करना चाहिए |
भद्रा के सम्पूर्ण कालमान के आधार पर अङ्ग विभाग किया जाता है। इसके लिए भद्रा के सम्पूर्ण काल को प्रहरों में बाँट लेना चाहिए, तिथि के आठवें भाग को प्रहर कहा जाता है ।
भद्रा के अङ्ग विभाग के लिये एक और मत भी प्राप्त होता है, हाँलांकि यह मत गौण है ज्यादा महत्त्व नहीं रखता फिर भी पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए इसे प्रस्तुत किया जा रहा है |
यदि तिथि का मान 60 घटी हो तो भद्रा का अंग विभाग इस प्रकार होगा-
- मुख- भद्राकाल का पांचवां प्रहर
- गला- भद्राकाल का पहला प्रहर
- हृदय- भद्राकाल का ग्यारहवाँ प्रहर
- नाभि- भद्राकाल का चौथा प्रहर
- कटि- भद्राकाल का छठा प्रहर
- पूंछ- भद्राकाल का तीसरा प्रहर
अंग विभाग के अनुसार भद्रा के प्रहरों का फल इस प्रकार जानना चाहिए-
- भद्रा मुख में किये गए कार्य नष्ट हो जाते है।
- गले में करने से स्वास्थ्य की हानि होती है।
- हृदय में करने से कार्य की हानि होती है।
- नाभि में करने से कलह होती है।
- कटि में कार्यारम्भ करने से बुद्धि भ्रमित होती है |
- भद्रा पुच्छ में किये गए कार्य सफल होते हैं ।
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भद्रा का निवास-
चन्द्रमा की राशि के अनुसार भद्रा का निवास आकाश, पाताल या पृथ्वी में बतलाया गया है, आइये इसके नियमों को समझते हैं |
कुम्भकर्कद्वये मर्त्ये स्वर्गेब्जेऽजालयेऽलिगे ।
स्त्रीधनुर्जूकनक्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलम् ।।
मु.चि. शु.प्र. श्लो.45
अर्थात्- कुम्भ, मीन, कर्क और सिंह राशि में चन्द्रमा हो तो भद्रा पृथ्वी में रहती है | मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशि में चन्द्रमा हो तो भद्रा स्वर्ग में रहती है | कन्या, धनु, तुला और मकर में चन्द्रमा हो तो पाताल में भद्रा रहती है | भद्रा का जहाँ वास होता है वहीं उसका फल होता है |
भद्रा का स्वरूप बहुत भयानक बताया गया है, चतुर्थी में हंसी, अष्टमी में नन्दिनी, एकादशी में त्रिसिरा, पूर्णिमा में सुमुखी, तृतीया में करतलिका, सप्तमी में वैकृति, दशमी में रौद्रमुखी, चतुर्दशी में चतुर्मुखी ये भद्रा के नाम हैं | ये रत्नकोश नामक ग्रन्थ में कहे गये हैं |
भद्रा में विहित कार्य-
भद्रा काल के दौरान युद्ध, राजदर्शन, भय- स्थानों का दर्शन, वाद- विवाद, शठता, ठगी, आक्रमण, डॉक्टर को बुलाना, पशु खरीदना, गाड़ी ठीक कराना, गन्ना बोना, शिवपूजा (तांत्रिक), दुर्गापूजा (तांत्रिक), दान, अग्निकर्म आदि भीषण कार्य ही केवल करना चाहिए | भद्रा में सभी तरह मंगल कार्य निषिद्ध हैं |
भद्रा के विहित परिहार–
शुभ कार्यों में सारी भद्रा जहाँ तक हो सके छोड़ देना चाहिए | वशिष्ठ ने कहा है कि विष्टि में कोई शुभ कार्य न करें | श्रीपति ने अपरिहार्य स्थिति में मुख घटी का त्याग कहा है | चन्द्रेश्वर भी इसे ‘भुवनमध्ये कार्यनाशाय विष्टिः’ कहते हैं | नारदीय मत में भी भद्रा के पुच्छकाल में ही विजय कही गई है |
आपात्कालीन परिस्थिति हेतु भद्रा का परिहार निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत है-
- भद्रा के दौरान आक्रामक कार्य किए जा सकते हैं |
- दिन में तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा और रात्रि में पूर्वार्ध की भद्रा शुभ मानी जाती है |
- आकाश व पाताल की भद्रा के दौरान शुभ कार्य किए जा सकते हैं |
- भद्रा के पुच्छ को भी शुभ माना गया है |
– पं. ब्रजेश पाठक “ज्यौतिषाचार्य”