संवत्सर मीमांसा

संवत्सर मीमांसा

संवत्सर शब्द वैसे तो आपके लिए जाना पहचाना शब्द है। पर इसकी गुत्थी उतनी भी आसान नहीं है जितना सबलोग समझते हैं । जब हम संवत्सर पर विचार करना शुरु करते हैं तो अनेकों प्रश्न धावा बोल देते हैं जिनका सही उत्तर जल्दी प्राप्त नहीं होता। मुझसे भी कई बार इस पर अनेक तरह के प्रश्न किए हैं यह संवत्सर हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि प्रत्येक स्मार्त कर्मके संकल्प करते समय इसका प्रयोग होता है।
साथ ही संहिता विषयोक्त फल को समझने के लिए भी संवत्सर कि विशेष आवश्यकता होती है। आइए हम जानते हैं संवत्सर कि सही व्याख्या समय पर समय पर संवत्सर की समझ पर किए गए पारिभाषिक परिवर्तनों को और समझते हैं इसके विभिन्न भेद प्रभेदों को ।

संवत्सर शब्द

“वस निवासे” धातु से ‘सम’ उपसर्गपूर्वक ‘सरन्’ प्रत्यय करने से संवत्सर शब्द व्युत्पन्न होता है। जिसकी व्युत्पत्ति है- “सं वसन्ति ऋतवो अत्र संवत्सरः” अर्थात जिसमें ऋतुएँ(वेदोक्त षड् ऋतुएँ) ठीक प्रकार से निवास करें वो संवत्सर है, अर्थात संवत्सर का शाब्दिक अर्थ होता है वर्ष। अमरकोश में वत्सरः शब्द आया है जो संवत्सर का ही वाचक है और इसका अर्थ ‘वर्ष’ ही किया गया है। वेदों में भी (विशेषकर यजुर्वेद) में संवत्सर शब्द कई बार आया है और यह ‘वर्ष’ अर्थ में ही वहाँ प्रयुक्त है। परन्तु लोकव्यवहार में यह शब्द वृहस्पति की गति से उत्पन्न होने वाले बार्हस्पत्य संवत्सर के लिए रूढ़ हो चला और उसका वाचक बन गया है।

संवत्सर की संकल्पना

जैसे सूर्य के भचक्र भ्रमण का ज्ञान होने पर सौर वर्ष चन्द्रमा के भचक्र काल का ज्ञान होने पर चान्द्र वर्ष बने निश्चित ही उसी प्रकार वृहस्पति के भचक्र भ्रमण का ज्ञान होने पर और वृहस्पति का पृथ्वी पर पड़ने वाले विशिष्ट प्रभाव का अध्ययन होने पर गौरव वर्ष का जन्म हुआ होगा। वृहस्पति नक्षत्र मंड़ल की एक परिक्रमा करने में लगभग 12 सौर वर्षों का समय लेता है अर्थात 1 बार्हस्पत्य वर्ष = ~12 सौरवर्ष । जिस प्रकार सूर्य के एक राशि भ्रमण पर एक सौर मास बनता है जो लगभग 30 दिनों का होता है उसी प्रकार वृहस्पति के एक राशि भ्रमण काल (जो कि एक सौर वर्ष के बराबर होता है) को एक बार्हस्पत्य मास/गरू मास कहा जाने लगा जिनके नाम चान्द्र मासों की तरह ही चैत्र संवत्सर, वैखाश संवत्सर आदि रखे गए और प्राचीन समय में प्रयोग किए जाते रहे। यहाँ यह बात ध्यान रखना चाहिए कि चान्द्रमासों के नामकरणानुरुप ही चैत्रसंवत्सरादि गुरुमासों के नाम  वृहस्पति के सूर्य सानिध्य वशात् अस्त होने और सूर्य से दूर जाने के पश्चात उदय होने के समय तात्कालिक उदय नक्षत्र के नामानुरुप ही रखे गए हैं। यह उदय-पद्धति कहलाती है ।
यथा-

मेष- आश्विन संवत्सर ।
वृष- कार्तिक संवत्सर ।
मिथुन- मार्गशीर्ष संवत्सर ।
कर्क- पौष संवत्सर ।
सिंह- माघ संवत्सर ।
कन्या- फाल्गुन संवत्सर ।
तुला- चैत्र संवत्सर ।
वृश्चिक- वैशाख संवत्सर ।
धनु- ज्येष्ठ संवत्सर ।
मकर- आषाढ़ संवत्सर ।
कुम्भ- श्रावण संवत्सर ।
मीन- भाद्रपद संवत्सर ।

हमारे क्षेत्र में तो इसका प्रचार दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन चण्डूपञ्चाङ्ग नामक प्राचीन मारवाड़ी पञ्चाङ्ग में गुरु के मध्यमराशिपद्धति के अनुसार संवत्सर का नाम चैत्रसंवत्सरादि लिखा रहता है। मद्रासादि प्रान्तों में भी उदय पद्धति का खूब प्रचार रहा है। उदय पद्धति महाभारत-काल में भी प्रचलित थी।
वराहमिहिर कृत वृहत्संहिता में वृहस्पतिचाराध्याय नामक आठवें अध्याय में चैत्रसंवत्सर, वैशाखसंवत्सर आदि का फल प्रस्तुत किया है जो इसकी प्राचीनता और प्रचलन का ठोस प्रमाण है।
प्राचीन ताम्रपत्रों और शिलालेखों में भी उदय-पद्धति के चैत्रसंवत्सरादि का बखूबी प्रयोग मिलता है।

द्वादश-संवत्सरचक्र/उदय-पद्धति

बृहस्पति जिन 12 सौर वर्षों में अपना एक भचक्र भ्रमण पूरा करता है। वह द्वादश-संवत्सरचक्र कहलाता है । प्रारम्भ में एक बार्हस्पत्य संवत्सर  “उदयादुदयं जीवोः” के प्राकृतिक प्रत्यक्ष नियमानुसार माना जाता था। इसे उदय-पद्धति कहते हैं।
वृहत्संहिता में वराहमिहिर ने इसकी चर्चा की है-
आद्यं धनिष्ठांशमभिप्रपन्नो माघे यदा यात्युदयं सुरेज्यः ।
षष्ट्यब्दपूर्वः प्रभवः स नाम्ना प्रपद्यते भूतहितस्तदाब्दः ।। वृ.सं.८.२७

इसके साथ ही वराहमिहिर ने वृहत्संहिता के वृहस्पतिचाराध्याय नामक आठवें अध्याय में उदय पद्धति के समर्थन में ऋषिपुत्र, काश्यप और गर्ग का मत भी प्रस्तुत किया है।*
वैदिक काल में युगारम्भ माघ मास से ही होता था-
माघशुक्लप्रपन्नस्य पौषकृष्णसमापिनः ।
युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते ।।
वेदाङ्ग ज्यो. श्लो. ५

उसकाल में अयनांश नगण्य हुआ करता था, पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव भी कम था, इसलिए उदय पद्धति उस काल में बहुत सयुक्तिक हुआ करती थी। परन्तु स्थितियाँ अब बिल्कुल बदल चुकी हैं अब माघशुक्ल प्रतिपदा के समय गुरु का उदय तकनीकी तौर पर संभव नहीं है।

मध्यम-राशिपद्धति

उदय-पद्धति में थोड़ी असुविधा है। दरअसल गुरु के एक उदय होने के 400 दिनों के बाद उसका दूसरा उदय होता है। एक गुरुभगण में अर्थात 12 वर्षों में 11 गुरूदय होते हैं जिससे एक संवत्सर का लोप हो जाता है। इसलिए ज्योतिषियों ने गुरू के मध्यम गति का ज्ञान हो जाने के पश्चात गुरू के मध्यम गति से एकराशि भोगकाल को संवत्सर मानने का निश्चय किया ।
इस सन्दर्भ में प्राचीन वशिष्ठवचन् प्राप्त होता है*-
मध्यगत्या भभोगेन गुरोर्गौरववत्सराः

सिद्धांत शिरोमणि में भास्कराचार्य कहते हैं-
वृहस्पतेर्मध्यमराशिभोगात् संवत्सरं सांहितिका वदन्ति। सि. शि. मध्यमाधिकार का.अ. श्लो.30.

वासनाभाष्य में भास्कराचार्य ने अपने उक्त मत के समर्थन में एक क्षेपकपद्य भी प्रस्तुत किया है-
कल्पादितो मध्यमजीवभुक्ता ये राशयः षष्टिहृतावशेषाः।
संवत्सरास्ते विजयाश्विनाद्या इतीज्यमानं किल संहितोक्तम्।।*

श्रीपति भी मध्यम राशिभोग से ही संवत्सर गणना बताते हैं-
इयं हि षष्टिः परिवत्सराणां बृहस्पतेर्मध्यमराशिभोगात् ।

इस प्रकार इस मध्यमगति से राशिभोग पद्धति को स्वीकार करने पर 12 वर्षों में संवत्सर का लोप नहीं होता। इसे मध्यम-राशिपद्धति कहते हैं । लेकिन इस बात को जान लेना चाहिए कि गुरू द्वारा मध्यम गति से एक राशि के भोगकाल को जानना उतना सरल और स्वाभाविक नहीं है जितना कि गुरू का उदयास्त देखना और समझना।

अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है किआखरी मध्यम-राशिपद्धति में कोई वैज्ञानिकता है या नहीं? यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि हम जो मध्यम ग्रह निकालते हैं वो दरअसल भूकेन्द्रिक ग्रह होता है इसलिए सांहितिक फलादेश के लिए यह सबसे ज्यादा उपयुक्त है। इस सन्दर्भ में मेरा स्पष्ट व्यक्तिगत मत है कि सम्पूर्ण पृथ्वी के संयुक्त सांहितिक फलादेश के लिए मध्यम ग्रह(भूकेन्द्रिक ग्रह) का ही प्रयोग करना चाहिए।

60 संवत्सरों का आधार

वेदों में पञ्चवर्षीय युग की संकल्पना प्रसिद्ध हैं । जिनके नाम हैं-
1. संवत्सर
2. परिवत्सर
3. इदावत्सर
4. अनुवत्सर और
5. इदुवत्सर ।
वेद संहिताओं में इसके कई प्रमाण देखने को मिलते हैं। यथा-
अग्निर्वा संवत्सरः । आदित्यः परिवत्सरः……… तै. ब्रा. १/४/१०

संवत्सरोसि परिवत्सरोसि….वा. सं. २६/४५

वेदोत्तरकालीन बहुत से ग्रन्थों में पञ्चसंवत्सरात्मक युग तथा इसके अवयवीभूत संवत्सर, परिवत्सर आदि का निर्देश मिलता है।
इस तरह यह बात समझ में आती है के बार्हस्पत्य वर्ष के ज्ञान व प्रयोग के पश्चात वैदिक पञ्चवर्षीय युगानुरूप ही पञ्चवर्षात्मक बार्हस्पत्य युग की स्थापना हुई और इनके नाम भी वैदिकयुगानुरूप ही रखे गए। पहला नाम संवत्सर होने से इन्हे संयुक्त रूप से संवत्सर ही कहा जाने लगा । वराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता में इन पाँच बार्हस्पत्य युगों के नाम क्रमशः संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इदुवत्सर ही बताएँ हैं साथ ही इनके फलों का भी उल्लेख किया है।

ऊपर यह बात समझाई गई है कि 1 गौरव वर्ष में 12 सौर वर्ष होते हैं। पञ्चवर्षीय बार्हस्पत्य युगानुरूप क्रमशः संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इदुवत्सर में 12-12 सौर वर्ष व्यतीत होंगे ।  इसप्रकार 5 (गुरू वर्ष) x 12 (सौर वर्ष) = 60 संवत्सरों की उत्पत्ति होती है। ये 60 संवत्सर प्रभवादि, या विजयादि नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हैं।

सौरचान्द्र संवत्सर/शक संवत महिमा

ऊपर उदय-पद्धति की चर्चा करते समय मैने सप्रमाण बताया कि वैदिककाल में वर्षारम्भ माघशुक्लप्रतिपदा से प्रारम्भ होता था। पुनः सिद्धांत ग्रन्थों के प्रचार के समय वर्षारम्भ चैत्रशुक्लप्रतिपदा से माना जाने लगा । सूर्य सिद्धांत के मध्यमाधिकार में अहर्गणानयनम् प्रकरण में मधुशुक्लादिभिर्गतैः कह कर चैत्रशुक्लप्रतिपदा से वर्षारम्भ की पुष्टि की गई है।
बाद में करणग्रन्थों के प्रचार के बाद भी परंपरानुरुप चैत्रशुक्लप्रतिपदा से ही वर्षारम्भ माना जाता है।  लेकिन करण ग्रन्थों में शक संवत् को बहुत महत्व दिया गया है, क्योंकि यह पूर्णतः सायन सौर पद्धति पर आधारित होने से पृथ्वी पर समय गणना के लिए सबसे सरल और सटीक माध्यम है।

आप सबको यहाँ एक महत्वपूर्ण बात बतानी है जिसे जानकर शायद आप आश्चर्यचकित रह जाएँ। शक संवत् जो कि राजा शालिवाहन् द्वारा चलाया गया माना जाता है, पूर्णतः सायन सौर पद्धति पर आधारित वर्ष गणना है। जिसका प्रारम्भ प्रतिवर्ष सूर्य के सायन मेष संक्रान्ति के साथ होता है। उस समय भारत में ये बहुधा प्रचलित था इसके प्रचलन का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि शकारम्भ काल या ग्रन्थारम्भ शक काल को आधार मानकर कई करण ग्रन्थों की रचना कि गई इसके अलावा तत्समकालीन लगभग सभी ज्योतिर्विदों ने अपना जन्मविवरण शक संवत् में ही बताया है, कई प्राचीन शिलालेखों में शक् संवत पाया गया है। आज भी नेपाल, उत्तराखण्ड़, उत्तराँचल, हिमाचल, कश्मीर और दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में शक संवत् उसी रूप में आम जनता द्वारा दैनिक व्यवहार में प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है।

जैसे आज 31 मार्च 2018 का दिन इस पद्धति में “10 मेषगते 1940 शाके” है। उदय-पद्धति सायन थी क्योंकि उसी के स्थान पर शक संवत् चलाया गया  संख्या में छोटा होने से गणित करने सुविधा होती थी इसलिए करण ग्रन्थों में इसका प्रयोग शुरू हुआ और सौर-सायन पद्धति पर आधारित होने से यह बहुत सुविधाजनक था इसलिए आम जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गया। इसकी लोकप्रियता और वैज्ञानिकता के कारण ही इसकी हूबहू नकल करके ईस्वी सन् बनाया गया और इस भारतीय पद्धति का अंग्रेजीकरण हो गया। वैसे तो शक् संवत् ईस्वी सन् से 78 वर्ष छोटा है परन्तु विश्वास मानें यह सिर्फ छलावा है और कुछ नहीं ।

शक संवत् की वैज्ञानिकता के कारण ही भारत सरकार ने भी 22 मार्च 1957(सायन मेष संक्रांति के दिन) से मामूली फेरबदल के साथ इसे अपना राष्ट्रीय संवत घोषित किया।  शक संवत् की शुरुआत सायन मेषसंक्रान्ति(22 मार्च) के साथ ही होती है परन्तु आजकल कुछ लोग अपनी पंचांगों में शक संवत् को भी विक्रम संवत् की तरह चैत्रशुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होना दिखलाते हैं जो पूर्णतः ठीक नहीं है।

हाँ यह सत्य है कि सृष्ट्यारम्भ चैत्रशुक्लप्रतिपदा को हुआ था और उस दिन मेष संक्रांति हुई थी। इसलिए हम आज भी चैत्रशुक्लप्रतिपदा से नववर्षारम्भ मनाते हैं और यह सायन मेष संक्रांति के बहुत करीब होता है। कितना वैज्ञानिक है हमारा नववर्षारम्भ; है न!
पंजाब आदि कुछ प्रान्तों में निरयण मेष संक्रांति(14 अप्रैल) से भी शकारम्भ माना जाता है। इस नववर्ष को वे लोग वैशाखी कहकर मनाते हैं।
सिद्धांत ज्योतिष में सारी गणनाएँ और ग्रहानयन सायन होते हैं। पुनः सायन ग्रह में अयनांश घटाकर उन्हें निरयण बनाया जाता है।
क्योंकि वृहस्पति का मध्यम राशिपरिवर्तन और नववर्षारम्भ एक साथ नहीं हो सकते इसलिए जब करणग्रन्थों का प्रचार बढ़ा और शक संवत् लोकप्रिय हो गया तो संवत्सर की गणना माघशुक्ल प्रतिपदा से शकारम्भ(सायन मेष संक्रांति के दिन) में रूपान्तरित कर दी गई और इसे सौर-संवत्सर कहा जाने लगा। अर्थात्  शकारम्भ/नवसौरवर्षारम्भ (सायन मेष संक्रांति के दिन) से ही नवसंवत्सरारम्भ भी होने लगा और इन बार्हस्पत्य संवत्सरों को मेष संवत्सर, वृषसंवत्सर आदि कहा जाने लगा।

शकारम्भ के दिन बार्हस्पत्य संवत्सर का भुक्त भोग्य निकालकर इसकी गणना की जाती है और तदनुसार सांहितिक फलादेश किया जाता है।  ज्योतिर्विद नारायण दैवज्ञ ने मकरन्द-प्रकाश में संवत्सरानयन विधि ऐसी ही बताई है-
द्विष्ठः शकाब्दः करयुग्मनिघ्नो
भूनन्दयुग्मश्रुति संयुतश्च ।
शराद्रिवस्विन्दु हृतः सलब्धः
षष्ठ्याप्त शेषे प्रभवादयोऽब्दाः ।।

सौर संवत्सर सांहितिक फलादेश जानने के लिए उत्तम था लेकिन हमारे धर्मशास्त्रीय श्रौतस्मार्तादि कर्म चान्द्र पद्धति से मनाए जाते हैं इसलिए चैत्रशुक्लप्रतिपदा के दिन उपस्थित संवत्सर को श्रौतस्मार्त कर्मों के लिए उपयुक्त माना गया, यह चान्द्र संवत्सर कहलाता है।
जैसा कि निर्णय-सिन्धु में कमलाकरभट्ट ने ज्योतिर्निबंध के ब्रह्म-सिद्धांत का मत प्रस्तुत किया है-
व्यावहारिकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्यादि कर्मसु।
योज्यः सर्वत्र तत्रापि जैवो वा नर्मदोत्तरे।।

यहाँ पर कुछ लोग मनमाना अर्थ करते हैं कि नर्मदा के उत्तर वाले बार्हस्पत्य संवत्सर का प्रयोग करें और बाकी लोग चान्द्रसंवत्सर का, जबकि यह अर्थ समिचीन नहीं है। वास्तविक अर्थ ये है सबलोग चान्द्र संवत्सर का प्रयोग करें नर्मदा से उत्तर वाले लोगों के पास दो विकल्प हैं वो चान्द्र और बार्हस्पत्य दोनों का ही प्रयोग कर सकते हैं।

वहीं पुनः आर्ष्टिषेण का मत प्रस्तुत करते हैं-
स्मरत्सर्वत्रकर्मादौ चान्द्रं संवत्सरं सदा ।
नान्यं यस्माद्वत्सरादौ प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तीता ।।

चान्द्र-सौर संवत्सर का उल्लेख वर्तमान रोमक सिद्धांत और शाकल्योक्त ब्रह्मसिद्धान्त में है।
चान्द्र-सौर पद्धति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हुई लेकिन दक्षिण भारत में यह थोड़े विलम्ब से लोकप्रिय हुई।

लुप्त-संवत्सर

मध्यम-राशिपद्धति में भी थोड़ी असुविधा है । दरअसल गुरू को मध्यम गति से एक राशि भोगने में सूर्यसिद्धान्तानुसार 361 दिन 1 घटि 36 पल का समय लगता है। यह बार्हस्पत्य संवत्सर सौर वर्ष से 4.23 दिन छोटा होने के कारण 85 सौर वर्षों में 86 बार्हस्पत्य संवत्सर हो जाते हैं। अर्थात एक बार्हस्पत्य संवत्सर का लोप हो जाता है और इसका आरम्भ काल निश्चित नहीं रहता। इसका उपाय ज्योतिषियों ने बार्हस्पत्य संवत्सर को सौर संवत्सर के तुल्य मानकर निकाला जिसे ऊपर सौर-चान्द्र संवत्सर कहकर समझाया गया है। इस पद्धति में प्रभवादि 60 संवत्सरों का लोप नहीं होता।

प्रत्येक 85 वर्षों में एक संवत्सर के लुप्त हो जाने वाली प्रपञ्चात्मक पद्धति से बचने के लिए सदा चान्द्र-सौर संवत्सरारम्भ की ओर ज्योतिषियों का झुकाव होना स्वाभाविक ही है। परन्तु यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि जिस समय  वृहस्पति की मध्यम राशिपद्धति से प्राप्त वास्तविक संवत्सर और चान्द्र सौर पद्धति वाले संवत्सर में साम्यता रही होगी तब से चान्द्र सौर पद्धति वाले संवत्सर का प्रचार हुआ होगा। शक 743 से 827 पर्यन्त दोनों पद्धतियों द्वारा एक ही संवत्सर आता था।

लेकिन मनुष्य ग्रहों की गति को नियन्त्रित नहीं कर सकते वो तो सतत प्राकृतिक नियमानुसार चलते हैं। ज्योतिर्विदों ने 60 संवत्सरों वाली व्यवस्था में लुप्तसंवत्सर की व्यवस्था को संभाल लिया लेकिन वृहस्पति को अतिचारी होने से नहीं रोक सकने के कारण शकारम्भ के साथ जो भुक्तभोग्यप्रकार से मेषादि बार्हस्पत्य संवत्सर शुरु होते हैं उनके लोप होने का तोड़ नहीं निकाल पाए।
मुहूर्तकल्पद्रुम में इस पर चर्चा की गई है-
चेत् स्पष्टया वाऽप्यथ मध्यगत्या राश्यन्तरं यत्र च चान्द्रवर्षेः।
गुरुर्न यायादधिवत्सरोऽधिमासेन तुल्यः स शुभेषु वर्ज्यः।।

यशोधर तंत्र में लुप्त संवत्सर की व्याख्या इस प्रकार है-
एकस्मिन् रविवर्षे गौरववर्षद्वयावसानं चेत्।
त्र्यब्दस्पृगेनमेवं विलुप्तसंवत्सरं प्राहुः।।

ज्योतिर्विदाभरण में भी लुप्त संवत्सर की चर्चा की गई है-
गुरुसंक्रमयुग्मवत्समा गदिता सा ननु लुप्तसंज्ञिता।
विबुधै रहिता शुभे तु याऽधिसमा गीष्पतिसंक्रमोज्झिता॥

जगजीवन दास गुप्त ने इस सन्दर्भ में ज्योतिष रहस्य नामक अपनी पुस्तक में म. म. महेश ठक्कुर का उद्धरण प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार है-
“पूर्वराशिं परित्यज्याऽपूर्णे संवत्सरे गुरुः ।
अतीचारस्तदाज्ञेयः परराशिगतो यदा ।।

इसका स्पष्ट शास्त्रसम्मत अर्थ यह है कि यदि किसी अपूर्ण(वर्तमान) संवत्सर में गुरू पूर्व-राशि का त्याग करे (अर्थात वर्तमान संवत्सर संबंधी राशि में प्रवेश करे) पश्चात् संवत्सर पूर्ति (समाप्ति) से पहिले ही पर(अग्रीम) राशि में चला जाए तो यह गुरू का अतीचार(अत्यतिचार) होता है। इस प्रकार का अतीचार होने पर उपर्युक्त लक्षण के अनुसार लुप्त संवत्सर होता है।”
इसके बाद उन्होंने अत्यतिचार के तीन भेद लघु, विशिष्टलघु(मध्य) और महाअतिचार का नामोल्लेख करते हुए उदाहरण देकर संवत् २०२२ में (सन् 1966) 28 दिन त्याज्यवाला लघ्वातिचार दिखाया है ।

संवत्सर ज्ञान की सरलतम विधि

इस विधि से आप उत्तर भारत में प्रचलित प्रभवादि संवत्सर का वर्तमान क्रम जान सकते हैं-
1. शक संवत में 24  जोड़कर 60 का भाग दें। पुनः जो शेष आए उसमें 1 जोड़ने पर वर्तमान संवत्सर संख्या प्राप्त हो जाएगी।
उदाहरण- शक 1926 + 24=1950÷60 करने पर शेष 30+1=31; हेमलम्ब (वर्तमान संवत्सर)।
2. ईस्वी सन् में 54 घटाकर 60 का भाग दें। पुनः जो शेष आए उसमें 1 जोड़ने पर वर्तमान संवत्सर संख्या प्राप्त हो जाएगी।
उदाहरण- सन् 2004 – 54= 1950÷60 करने पर शेष 30+1=31; हेमलम्ब (वर्तमान संवत्सर) ।

विजयादि या प्रभवादि संवत्सर

भारतवर्ष में केवल विजयादि और प्रभवादि संवत्सर ही प्रचलित हैं ऐसी बात नहीं है। पितामह सिद्धांत के अनुसार पहला संवत्सर प्रमाथी होता है। वृत्त का शुरुआत बिन्दू कोई भी हो सकता है, संवत्सर चक्र है इसलिए संवत्सर की शुरुआत चाहे जहाँ से करें सिर्फ इनका क्रम बदलता है न कि नाम ।
सम्प्रति दक्षिण भारत में विजयादि और उत्तर भारत में प्रभवादि संवत्सर का प्रयोग होते हैं। दोनों के अपने अपने तर्क और प्रमाण हैं। आइए क्रमशः दोनों पर विचार करते हैं।

विजयादि संवत्सर :-
1. सृष्ट्यारम्भ के समय विजयादि संवत्सर था ।
2. कलयुगारम्भ के समय विजयादि संवत्सर था।
3. सूर्य सिद्धांत में षष्ट्या स्युर्विजयादयः कहा है।
4. उपर मध्यम राशिपद्धति विवरण में सि.शि. वासना भाष्य के क्षेपक पद्य में संवत्सरास्ते विजयाश्विनाद्या कहा है ।
5. श्रीपति ने सिद्धांतशेखर में कहा है- संवत्सराः स्युर्विजयादयस्ते
6. सिद्धांत तत्वविवेक में भी सूर्य सिद्धांत के कथन की पुनरावृत्ति करके विजयादि का समर्थन किया गया है।
7. विजयादि संवत्सर की विशेषता है कि विजयादि संवत्सर का क्रमांक वृहस्पति की मध्यमराशि की सूचना भी देता है; यदि हम विजयादि क्रम संख्या में 12 के गुणक घटाते जाएँ तो हमें वृहस्पति की मध्यम राशि प्राप्त हो जाएगी । लेकिन यह विशेषता प्रभवादि क्रम में नहीं है।
जैसे- यदि हम जानना चाहें की विजयादि क्रम से 35वें प्रभव संवत्सर में मध्यम वृहस्पति की राशि क्या होगी तो- 35-12=23; 23-12=11. देखिए कितनी आसानी से हमें ज्ञात हो गया कि प्रभव संवत्सर के समय वृहस्पति की मध्यम राशि कुम्भ है।

प्रभवादि संवत्सर :-
1. शकारम्भ के समय प्रभवादि संवत्सर था।
2. डॉ. सुरेशचन्द्र मिश्र ने गणित ज्योतिषम् नामक अपने ग्रन्थ में बहुत बढ़िया संकल्पना प्रस्तुत की । वहाँ उन्होंने सिद्ध किया कि वेदाङ्गकाल में बार्हस्पत्य वर्ष की शुरुआत कुम्भ प्रवेश के क्षण से मानी जाती है। वाराह के आलोक से उन्होंने बताया कि कुम्भ प्रवेश के समय पिंगल, कालयुक्, सिद्धार्थी, रौद्र और दुर्मति मे से कोई संवत्सर होता था। इसकी सारणी बनाने पर आप देखेंगे की प्रभव संवत्सर का जुड़ाव मेष राशि और पञ्चसंवत्सरात्मक युग व्यवस्था संवत्सर, परिवत्सर आदि में सीधे तौर पर संवत्सर के साथ है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि वेदांग युग का पहला संवत्सर प्रभव था । संभवतः यही बात कालान्तर में प्रभवादि गणना का आधार बना हो ।
3. वराहमिहिर ने वृहत्संहिता में प्रभवादि गणना के अनुसार ही संवत्सर फल लिखे हैं।
4. रोमकसिद्धान्त में विजयादि और प्रभवादि दोनों का उल्लेख है-
विजयाद्यास्तथाऽर्काब्दाः प्रभवाद्याः स्मृता बुधैः ।
5. मकरन्द प्रकाश में प्रभवादयोऽब्दाः कहा गया है।
6. जगजीवन दास गुप्त जी ने ज्योतिष रहस्य में एक श्लोक प्रस्तुत किया है जो षष्ट्याप्तशेषे प्रभवादयोऽब्दः कहकर प्रभवादि का समर्थन कर रहे हैं।

शोधकर्ता-
पं. ब्रजेश पाठक “ज्यौतिषाचार्य”

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