अशून्य शयन व्रत : दाम्पत्य सुख बढ़ाने वाला अद्भुत् व्रत

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दाम्पत्य सुख बढ़ाने वाला अद्भुत् अशून्य शयन व्रत

यदि आप भी पति-पत्नी के बीच कलह से परेशान हैं, वैमनस्य बढ़ रहा है, विचार नहीं मिल रहे हैं अथवा तलाक की नौबत आ रही है या जन्मकुंड़ली में दाम्पत्य सुख का योग कम है, यदि जीवनसाथी अल्पायु है अथवा जीवनसाथी कुमार्ग का आश्रय ले रहा है तो आपको यह अद्भुत अशून्य शयन व्रत अवश्य ही करना चाहिए।

            यह व्रत पति या पत्नी अथवा दोनों मिलकर भी कर सकते हैं। श्रावण-भाद्रपद-आश्विन-कार्तिक इन चतुर्मास के दौरान कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को पड़ने वाले व्रत का नाम अशून्य शयन व्रत है। चतुर्मास के नियमों का पालन करते हुए, आपको यह व्रत करना है। चार महीनों में मात्र चार ही व्रत हैं (चारों व्रत क्रमशः करने अनिवार्य हैं।) लेकिन इसका प्रभाव स्थायी, दूरगामी और चमत्कृत करने वाला है। 

चतुर्मास की चन्द्रोदय व्यापिनी द्वितीया के दिन यह व्रत किया जाता है, अतः तदनुसार ही चारों माह के चन्द्रोदय व्यापिनी द्वितीया का उल्लेख दिनांक सहित आप आगे प्राप्त करेंगे।

Ashunya shayan vrat Katha

इस वर्ष 2024 में निम्नलिखित दिनांकों में अशून्य शयन व्रत होंगे –

  • श्रावण कृष्ण द्वितीया तदनुसार 22 जुलाई दिन सोमवार
  • भाद्रपद कृष्ण द्वितीया तदनुसार 20 अगस्त दिन मंगलवार
  • आश्विन कृष्ण द्वितीया तदनुसार 19 सितम्बर दिन गुरुवार
  • कार्तिक कृष्ण द्वितीया तदनुसार 18 अक्तूबर दिन शुक्रवार

अशून्यशयन व्रत विधि :

इस व्रत की विस्तृत विधि वामन पुराण के 16वें अध्याय में दी गई है। साथ ही मत्स्यपुराण, पद्मपुराण, भविष्यपुराण आदि में भी कुछ अन्तर से इस महनीय व्रत का उल्लेख मिलता है। मेरे पास इस समय गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मत्स्यपुराण उपलब्ध होने से उसी के अनुसार इस व्रत की संपूर्ण विधि का उल्लेख कर रहा हूँ।
मत्यपुराण के 71वें अध्याय में ब्रह्मा जी भगवान से पूछते हैं –

भगवन् पुरुषस्येह स्त्रियाश्च विरहादिकम्।
शोकव्याधिभयं दुःखं न भवेद् येन तद् वद ॥

भगवन्। इस लोकमें जिसका अनुष्ठान करनेसे पुरुष अथवा स्त्री को विरह आदि का दुःख न हो तथा शोक एवं रोग का भय न हो, वह व्रत मुझे बतलाइये।

तब श्रीभगवान कहते हैंब्रह्मन् ! श्रावणमास के कृष्ण पक्षकी द्वितीया तिथि को मधुसूदन भगवान् केशव लक्ष्मीसहित सदा क्षीरसागरमें निवास करते हैं, अतः उस तिथिको जो मनुष्य भगवान् लक्ष्मी-गोविन्द की पूजा करके सात सौ कल्पों तक फल देने वाली गौ, पृथ्वी और सुवर्ण का दान करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

यह द्वितीया अशून्यशयना नाम से प्रसिद्ध है –

अशून्यशयना नाम द्वितीया सम्प्रकीर्तिता।

इस दिन विधिपूर्वक भगवान् लक्ष्मी-विष्णु का यथोपलब्ध उपचारों से पूजन करके बताए जा रहे श्लोकों द्वारा प्रार्थना करनी चाहिये –

श्रीवत्सधारिन् श्रीकान्त श्रीधामन् श्रीपतेऽव्यय।
गार्हस्थ्यं मा प्रणाशं मे यातु धर्मार्थकामदम् ॥

अग्नयो मा प्रणश्यन्तु देवताः पुरुषोत्तम ।
पितरो मा प्रणश्यन्तु मास्तु दाम्पत्यभेदनम् ॥

लक्ष्म्या वियुज्यते देव न कदाचिद् यथा भवान्।
तथा कलत्रसम्बन्धो देव मा मे वियुज्यताम् ॥

लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा।
शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथैव मधुसूदन॥

  • इस प्रकार पूजन एवं प्रार्थना करने के बाद वाद्य यंत्रों के माङ्गलिक शब्दों के साथ-साथ देवाधिदेव भगवान् विष्णु के नामों का कीर्तन करना चाहिये। जो गीत-वाद्यके आयोजनमें असमर्थ हों, उन्हें घण्टा का शब्द कराना चाहिये, क्योंकि घण्टा समस्त बाजों के समान माना गया है।
  • इस प्रकार भगवान् लक्ष्मी-गोविन्द की पूजा करके रात में एक बार तेल और क्षार नमक से रहित (घी और सेन्धा नमक से युक्त) अन्न का भोजन करे। ऐसा भोजन तब-तक करे, जबतक इस व्रत की चार आवृत्ति न हो जाए (चार मासतक ऐसा ही भोजन करना चाहिये)।
  • तदनन्तर प्रातः काल होने पर एक विलक्षण शय्या का भी दान करने का विधान है। वह शैय्या गद्दा, श्वेत चादर और विश्रामोपयोगी तकिया आदि से सुशोभित होना चाहिए। उसपर भगवान् लक्ष्मीविष्णु की स्वर्णादि धातुमयी प्रतिमा स्थापित हो। उसके निकट दीपक, अन्नके पात्र, पादुका (जूते), उपानह (चप्पल), छत्र (छाता), चामर (पंखा), आसन आदि रखे होने चाहिए। वह अभीष्ट सामग्रियों से युक्त हो, उसपर श्वेत पुष्प बिखेरे गये हों, वह नाना प्रकार के ऋतुफलों से सम्पन्न हो तथा अपनी शक्ति के अनुसार आभूषण और अन्न आदि से समन्वित हो।
  • इस प्रकार वह शय्या ऐसे ब्राह्मणको देनी चाहिये, जिसका कोई अङ्ग विकृत न हो तथा जो विष्णु-भक्त, वैष्णव परिवारवाला, वेदज्ञ और आचरण से पतित न हो।
  • फिर उस शय्यापर द्विजदम्पति को बैठाकर विधान के अनुसार उन्हें अलंकृत करे।
  • ब्राह्मण की पत्नी को भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थों से युक्त बर्तन दान करे और ब्राह्मण को सभी उपकरणों से युक्त देवाधिदेव लक्ष्मीनारायण भगवान की स्वर्णमयी प्रतिमा जलपूर्ण घट के साथ निवेदित करे। (पान के पत्ते आदि में भगवान की प्रतिमा स्थापित करके घट में ऐसा रखें की वह घट के जल में तैरती रहे और दान करें।)
  • तत्पश्चात् ब्राह्मणको विदा कर व्रत समाप्त करे।
  • पूजन के दौरान अशून्यशयन व्रत का यह प्रसंग भी पूरा श्रवण करना चाहिए।

अशून्यशयन व्रत का महात्म्य

भगवान ब्रह्मा जी से कहते हैं – ब्रह्मन् ! इस प्रकार जो पुरुष श्रीहरि के अशून्यशयन व्रतका अनुष्ठान करता है, उसे कभी पत्नी वियोग नहीं होता। जो सधवा अथवा विधवा नारी नारायण परायण होकर कृपणता छोड़कर इसका अनुष्ठान करती है, वह दम्पति सूर्य-चन्द्रमा के स्थितिपर्यन्त (अन्य जन्मान्तरों तक प्रभावी फल देने वाला व्रत होने से) न तो कभी शोक से दुःखी होते हैं और न उनका रूप ही विकृत होता है।

©ब्रजेश पाठक ज्यौतिषाचार्य

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