देवोत्थान एकादशी का महत्व एवं सम्पूर्ण पूजन विधि 2023

इस वर्ष 23 नवम्बर 2023 दिन गुरुवार को देवोत्थान एकादशी हो रही है।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी, देवप्रबोधिनी और देवोत्थान एकदाशी कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु चतुर्मास की निद्रा से जगते हैं इसलिए इस दिन भगवान विष्णु को जगाने की विशेष पूजा की जाती है।

पूजा_विधि

  • तुलसी वृक्षों का मंडप बनाएं, बीच में चौक बनाया जाता है ।
  • चौक के मध्य में शालिग्राम अथवा भगवान विष्णु का चित्र या मूर्ति रखते हैं ।
  • चौक के साथ ही भगवान के चरण चिन्ह बनाये जाते हैं, जिसको बाद में ढक दिया जाता है ।
  • भगवान को गन्ना, सिंघाडा तथा फल-मिठाई समर्पित किया जाता है ।
  • घी का एक दीपक जलाया जाता है, जो कि रातभर जलता रहता है ।
  • भोर में भगवान के चरणों की विधिवत पूजा की जाती है ।
    फिर चरणों को स्पर्श करके उनको जगाया जाता है ।
    भगवान को जगाने के लिए निम्नलिखित श्लोक का पाठ करना चाहिए-
    उतिष्ठोतिष्ठ गोविंद उतिष्ठ गरुडध्वज,
    त्वया उत्तिष्ठमात्रेण उत्तिष्ठम् भुवनत्रयम् ।।
    अपने अपने लोकाचार के अनुसार भगवान को जगाने का उपक्रम करना चाहिए।
  • इस समय शंख-घंटा-और कीर्तन की आवाज़ की जाती है ।
  • इसके बाद व्रत-उपवास की कथा सुनी जाती है ।
  • पंचामृत बनायें, उसमें तुलसी दल मिलाएं ।
  • शालिग्राम जी को पंचामृत स्नान कराएं ।
  • मनचाहे इच्छापूर्ती की प्रार्थना करें ।
  • पंचामृत को प्रसाद के रूप में ग्रहण करें ।
  • इसके बाद से सारे मंगल कार्य विधिवत शुरू किए जाते हैं ।
देवोत्थान एकादशी

प्रबोधिनीएकादशी संक्षिप्त_व्रतकथा…

एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था।

एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला- महाराज! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय ‘हाँ’ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा- महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊँगा। मुझे अन्न दे दो।

राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुँचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा- आओ भगवान! भोजन तैयार है।
पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।
बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुँचे तथा प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए तथा वह अपने काम पर चला गया।

पंद्रह दिन बाद पुनः अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला- मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।
राजा की बात सुनकर वह बोला- महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा- हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूँगा।

लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए।
यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।

एकादशीव्रतपारण

देवोत्थान एकादशी व्रत करने वाले लोग शुक्रवार को सुबह सङ्गव काल समाप्ति से पूर्व ही पारण करें। मंगलवार को सुबह 8:48am बजे संगव काल समाप्त हो जाएगा अतः उससे पहले पारण करें ।
सङ्गव संस्कृत का शब्द है, ये शब्द प्राचीन काल से प्रचलित है। ये वो समय होता है जब चरवाहा बछडों को दूध पिलाकर और गौओं को दुहकर चराने के लिये ले जाता है । ज्योतिष में कालगणना के अनुसार प्रात:काल के बाद तीन मुहूर्त का समय सङ्गव काल कहलाता है।

  • पं. ब्रजेश पाठक “ज्यौतिषाचार्य”
    B.H.U., वाराणसी।

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