शिक्षा मनोविज्ञान तथा ज्योतिष विज्ञान का अन्तर्सम्बन्ध
डा. रामजियावन प्रजापति
आचार्य (साहित्य), एम.ए. (हिन्दी), शिक्षाचार्यः (M.Ed.),
विद्यावारिधि (Ph.D.), यू.जी.सी.नेट (शिक्षाशास्त्र)
सहायकाचार्य (अति.), केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गान्धी परिसर, शृङ्गेरी, कर्णाटक-577139
शिक्षा का अर्थ–
शिक्षा आजीवन सतत् प्रचाल्यमान एक विशिष्ट प्रक्रिया है । ‘शिक्षा’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘शिक्ष्’ धातु ‘टाप्’ स्त्रीलिङ्ग से बना हुआ है । ‘शिक्ष्’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सीखना और सिखाना’ होता है । अर्थात् सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को ‘शिक्षा’ कहा जाता है । ‘शिक्षा’ किसी भी मानव को एक अच्छा मानव बनाने में अत्यन्त सहायक होती है ।
‘शिक्षा’ द्वारा शिक्षणाधिगम का ज्ञान, उचिताचरण, तकनीकी दक्षताएं और विवध विद्याओं की प्राप्ति जैसे विशिष्ट विषयों से सम्बन्धित कार्यों के सम्पादन के भार सम्मिलित होते हैं । ‘शिक्षा’ विभिन्न कौशलों, व्यापारों के गुणों या व्यवसायों के सिद्धान्तों एवं मानसिक, नैतिक और सौंदर्य विषयक गुणों के उत्कर्ष को प्रदर्शित करने पर केन्द्रित होती है ।
समाज को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अपने द्वारा अर्जित ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास शिक्षा द्वारा ही किया जाता है । इन अनेकों विचारों से हम कह सकते हैं कि शिक्षा एक संस्था के रुप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को विकसित समाज से जोड़ने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । शिक्षा ही समाज की सांस्कृतिक धारोहरों को सुरक्षित करती है, समाज में सभ्यता, सामाजिकता, भविष्य निर्माण, राष्ट्रीय एकता, मानस में नवचेतना का जागरण, मानव का विकास, व्यवहारों में नैतिकता, परिपूर्ण मानवीय मूल्यों को सुरक्षित बनाए रखना इत्यादि ऐसे बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन किया जाता है ।
शिक्षा को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा जाए तो, शिक्षा व्यक्ति की अंतरनिहित क्षमताओं का विकास करने वाली तथा उनमें छिपी हुई शक्तियों को प्रकाशित कराने वाली प्रकिया के साथ साथ मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कराने वाली विशिष्ट प्रक्रिया है । यही प्रक्रिया उसे समाज में एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनने के लिए अभिप्रेरित करती है। शिक्षा का कार्य शैक्षणिकाधिगमानुभव द्वारा मानव व्यवहार में परिष्कार करते हुए सतत् सापेक्ष परिवर्तन लाना है ।
इस प्रकरण में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’, ‘सा विद्या या विमुक्तये’ ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ इत्यादि आर्ष वचनों द्वारा जीवन को विकास तथा सदाचरण की नयी दिशाएं प्रदान की जाती हैं । शिक्षण कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन कराने वाला शास्त्र शिक्षाशास्त्र है । जहाँ शिक्षक जब शिक्षण कार्य करता है तब वह ऐसी बातों का ध्यान रखता है कि अधिगमकर्ता को अधिगमानुभव अधिकाधिक हो । शिक्षा एक सजीव गतिशील प्रक्रिया है, इसमें अध्यापक और छात्रों के मध्य अन्तःक्रिया चलती रहती है । पूरी शैक्षिक अन्तःक्रियाएं किन्हीं विशिष्ट लक्ष्यों की ओर उन्मुख होती हैं ।
शिक्षा की परिभाषाएँ–
“शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक या मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क या आत्मा के सर्वाङ्गीण एवं सर्वोत्तम विकास से है ।”1
“स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है ।”2
“शिक्षा का प्रथम उद्देश्य व्यक्ति की आन्तरिक पूर्णता को बाह्य जगत् में प्रकट करना ही शिक्षा का उद्देश्य है, जिससे कि वह स्वयं को अच्छी तरह जान सके ।”3
“शिक्षा भारत में विदेशी नहीं है, ऐसा कोई भी देश नहीं है जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम इतने आदि काल से हुआ हो या जिसने इतना स्थाई और सशक्त प्रभाव को उत्पन्न किया हो । वैदिक युग के साधारण कवियों से लेकर आधुनिक युग के दार्शनिकों, शिक्षकों एवं विद्वानों की एक अविरल परंपरा रही है ।” 4
“शिक्षा का उद्देश्य मानव को प्रकृति के अनुरुप जीवन जीने के योग्य बनाना है । शिक्षा द्वारा मानव संसर्ग के परिणामस्वरुप जो कृतिमता उसमें आती है, उससे उसकी रक्षा करती है ।” 5
भारतीय परिप्रेक्ष में शिक्षाशास्त्र के कुछ प्रमुख शिक्षा ग्रन्थ–
- अमोघ नन्दिनी शिक्षा
- अपिशाली शिक्षा (सूत्र रुप)
- आरण्य शिक्षा
- आत्रेयी शिक्षा
- भारद्वाज शिक्षा
- चन्द्र शिक्षा (चन्द्रगोमिन द्वारा रचित- सूत्र रुप)
- कालनिर्णय शिक्षा
- कात्यायनी शिक्षा
- केशवी शिक्षा
- लघु मोघनन्दिनी शिक्षा
- लक्ष्मीकान्त शिक्षा
- नारदीय शिक्षा
- पराशरी शिक्षा
- प्रतिशाख्यप्रदीप शिक्षा
- सर्व सम्मत शिक्षा
- शम्भु शिक्षा
- षोडशश्लोकी शिक्षा
- स्वरव्यंजन शिक्षा
- वाशिष्ठ शिक्षा
- पाणिनीय शिक्षा इत्यादि अनेकों भारतीय शिक्षा के ग्रन्थ ।
‘भारतीय ज्ञान परंपरा’ में शिक्षा को ‘विद्या’ के रुप में भी स्वीकार किया गया है । ‘विद्या’ का महत्त्व हमारे शास्त्रों में विशद रुप में किया गया है । यथा-
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रात्वाद् धनमाप्नोति धनात् धर्मः ततः सुखम् ।।6
अर्थात् ज्ञान विनम्रता को प्रदान करता है, विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से धन प्राप्त होता है, और धन से व्यक्ति धर्म करता है पुनः वह सुख का भोग करता है । द्रष्टव्य है-
विद्या नाम नरस्य रुपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ,
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी, विद्या गुरुणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेश गमने, विद्या परा देवता ।
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं, विद्याविहीनः पशुः ।।7
अर्थात् मानव जीवन सभी जीवों का विशिष्टम रुप है, जिसमें विद्या अथवा ज्ञान उसका गुप्त धन होता है, विद्या ही विभिन्न यश-अपयशों के कर्मफलों का भोग कराने वाली है। विद्या ही यश प्रदात्री है और सुखकारी है । विद्या गुरुओं की भी गुरु है, विदेश जाने पर वही विद्या भाई-बंधुओं के समान सहायता करती है । अतः विद्या ही परा देवता है, राजाओं अथवा विद्वानों के बीच में केवल विद्या की ही पूजा होती है, धन की नहीं । इसलिए विद्या से विहीन मानव को पशु के समान कहा गया है । अतः मानव जीवन में विद्या एवं शिक्षा दोनों की महती आवश्यकता होती है । महाकवि भर्तृहरि द्वारा कहा गया है कि-
साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः
तृणं न खादन् अपि जीवमानः तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।।8
उपनिषदों में भी कहा गया है कि-‘सत्यं वद, धर्मं चर’ ‘संगच्छध्वं सं वदध्वम्’ ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘सत्यमेव जयते’ इत्यादि आर्ष सूक्तियाँ एकता, समता तथा दुर्व्यसनों से मुक्ति एवं कर्तव्यनिष्ठा का उपदेश करती हैं । शास्त्रों में इसका भी संकेत किया गया है कि- व्यक्ति को केवल कर्म अथवा केवल ज्ञान का आश्रय लेना ठीक नहीं होता, अपितु ज्ञान एवं कर्म दोनों का समन्वय करना ही श्रेयस्कर धर्म है । शिक्षा की भूमिका को उपनिषदों में स्पष्ट किया गया है कि– शिक्षा वही है जो मानव जीवन में विभिन्न प्रकार के पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए साधन बने, समाज को अच्छे मार्गों पर अग्रसर करे और पुण्य-पाप के कर्मफलों का भेद बताते हुए अपयश तथा पाप के कर्म-फलों से दूर करे, शान्ति के पथ पर चलने का अनुदेशन करे । इसके साथ ही साथ विद्या तथा अविद्या के रहस्यों का उद्घाटन करे। द्रष्टव्य हैं-
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चित् जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्तीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।1।।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं रीत्या नान्थेयेतोऽस्ति न कर्मलिप्यते नरे ।।2।।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ।।3।।9
कठोपनिषद् में भी शिक्षा के मूल सिद्धान्त का वर्णन मार्मिकता पूर्वक किया गया है-
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेत्,
तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते,
मन्दो योगक्षेमा वृणीते ।।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः,
स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढ़ाः,
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ।।10
मनोविज्ञान का अर्थ–
मनसः विज्ञानं मनोविज्ञानम् । अर्थात् मन का विज्ञान मनोविज्ञान है । परन्तु सूक्ष्मरुप से मनन करने पर यह ज्ञात होता है कि मनोविज्ञान ‘व्यवहार का विज्ञान’ कहलाता है । जिस शास्त्र में मानव- व्यवहार का अध्ययन किया जाता है उसे मनोविज्ञान कहते हैं । प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिग्मण्ड फ्रायड कहते हैं कि- मनोविज्ञान चेतना का व्यवहार विज्ञान है, जहाँ पर मानव व्यवहार के मुख्य तीन आयाम होते हैं-
- अचेतन युक्त व्यवहार (id)
- अहंकार युक्त व्यवहार (Igo)
- चेतनायुक्त व्यवहार (Supper Igo)
इन्हीं तीन अवस्थाओं के द्वारा मानव व्यवहार का अध्ययन किया जाता है । भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार शिक्षाशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, वेद-वेदाङ्ग, इतिहास, पुराण, उपनिषद्, श्रीमद्भग्वद्गीता, महाभारत, रामायण इत्यादि मनोविज्ञान के अद्वितीय शास्त्रीय ग्रन्थ हैं । ये सभी शास्त्र एक दूसरे से अभिन्न रुप से अन्तर्सम्बद्धता को धारण करते हैं । समाज में इन शास्त्रों के बिना दूसरे का शास्त्रों का स्तीत्व ही नहीं है ।
ज्योतिष विज्ञान का अर्थ–
ज्योतिष विज्ञान का उदय मानव जीवन के विकास के साथ-साथ ही हुआ । हम जानते हैं कि मानव स्वभावतः जिज्ञासु होता है । इन्हीं जिज्ञासाओं के फलस्वरुप वह प्रत्येक बातों की गहराई तक जाना चाहता है, औऱ वह यह भी जानना चाहता है कि कोई वस्तु, व्यवहार, समस्या इत्यादि से सम्बद्ध प्रश्न कब ? क्यों ? कैसी ? कैसे ? क्या ? किसके लिए ? इत्यादि जिज्ञासा भरे प्रश्नों का समाधान कैसे हो तथा इन सभी कारकों का जीवन के साथ कैसा सम्बन्ध है ? इन सभी प्रश्नों के समाधानों की कुञ्जी ज्योतिष विज्ञान होता है ।
अतः यह शाश्वत सत्य है कि जीव-जगत् के समस्त विकास की कड़ियाँ इन्हीं जिज्ञासाओं के परिणाम हैं । मानव ने जब कभी आकाश की ओर दृष्टि डाली होगी तब उसके मस्तिष्क में यही जिज्ञासाएं उत्पन्न हुई होंगी कि ये तारे, ग्रह, नक्षत्र क्या हैं ?, इनका वास्तविक स्वरुप क्या हैं ?, इनके कार्य क्या हैं ?, तारे टूटकर क्यों गिरते हैं ? सूर्य प्रतिदिन पूर्व में ही क्यों उदय होता है ? सूर्य पूर्व में ही क्यों उदय होता है ? ऋतुएँ, काल इत्यादि क्यों, कैसे, कब, परिवर्तित होते हैं ?
इन सबका ज्ञान ज्योतिष विज्ञान द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । अतः कह सकते हैं कि-ज्योतिष विज्ञान वास्तव में प्रकृति-पुरुष तथा पर्यावरण के साथ अन्तर्सम्बन्धित मानव जीवन को गति देने की दृष्टि प्रदान करने वाला विशिष्ट शास्त्र है । यह विज्ञान मूलतः गणितीय सिद्धान्तों पर आधारित तार्किकता तथा सैद्धान्तिकता से परिपूर्ण, फलित भविष्यवाणी कथनों के आधार पर पूर्णतः आनुप्रायोगिक शास्त्र (Pure Applied Science) है । यह शास्त्र जीवन के प्रत्येक अङ्गों का परिशीलन करते हुए उत्तम फलाचारण तथा शुभ कर्मों के प्रति अग्रसर होने के लिए मार्ग प्रशस्त करता है ।
शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र की अन्तरोपयोगिता –
यथा शिखा मयूराणां नगानां मणयो यथा ।
तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्यौतिः मूर्धनि स्थितम् ।।11
अर्थात् जिस प्रकार से मयूरों की शिखा उनके शिरो देश (शिर्षस्थ प्रदेश) में स्थित रहती है और जिस प्रकार नागों की मणियाँ भी उनके शिर्षस्थ स्थानो में रहती हैं, उसी प्रकार मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्रों में वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द तथा ज्योतिष) तथा ज्योतिष शास्त्र की महत्ता एवं उपयोगिता शीर्षस्थ विद्यमान रहती है ।
शिक्षा के क्षेत्र में ज्योति अत्यन्त उपकारक है । इसके साथ-साथ हम सभी जानते हैं कि सामाजिक जीवन में शिक्षामनोविज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है यह सभी लोग जानते हैं । शिक्षामनोविज्ञान विहीन मनुष्य पशु तुल्य माना गया है । इसी शिक्षामनोविज्ञान के चयन एवं अन्यान्य विषय़ों में ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता सार्वभौमिक रुप से सम्मिलित है । अतः संसार के अविरल प्रवाह को प्रवाहित करने वाला निःशेष ज्ञान के आदि अस्त्रोत रुपी वेद पुरुष के विशालकाय शरीर में ज्योतिष शास्त्र का स्थान नेत्र के रुप में स्वीकार किया गया है-
‘वेदचक्षुः किलेदंस्मृतं ज्योतिषम्’12
ज्योतिष शास्त्र का संप्रत्यय–
- ग्रह नक्षत्रादि खगोलीय ज्योतिष्पिण्डों का प्रतिपादन जिस शास्त्र में किया जाता हो वह शास्त्र ज्योतिष शास्त्र कहलाता है ।
- जिस शास्त्र में ग्रह-नक्षत्र विज्ञान तथा संसार के शुभा-अशुभ कर्मों का ज्ञान हो उसे ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है ।
जब नक्षत्रों का प्रतिपादन किया जाता है तब जिसमें अर्शादिभ्योऽच इत्यादि सूत्र से निष्पन्न ज्योतिष शब्द ज्योति का प्रतिपादक है । द्योतित अर्थात् प्रकाशित होते हैं ग्रह नक्षत्रादि जिससे इस व्युत्पत्ति के अनुसार द्युतेरिषण्णादेशश्च जः इत्यादि उणादि सूत्र से निष्पन्न ज्योतिष शब्द बना है। ज्योति अर्थात् सूर्यादि ग्रहों की गति आदि का प्रतिपादक होने से ज्योतिषशास्त्र की सत्ता है । भारतीय परिवेश में समय समय पर विभिन्न रुपों में ज्योतिष शास्त्र को परिभाषित किया जाता रहा है ।
सुदूर प्राचीन काल में केवल ज्योति-पदार्थ ग्रह-नक्षत्र तारों आदि के स्वरुप विज्ञान को ही ज्योतिष कहा जाता था । उस समय सैद्धान्तिक गणित का बोध इस शास्त्र से नहीं होता था क्योंकि उस काल में केवल दृष्टि पर्यवेक्षण द्वारा ही नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना अभिप्रेत था । प्राचीन काल में मनुष्य की दृष्टि सूर्य-चन्द्र पर पड़ी तो उनको दैवत्त्व रुप में माना गया । यथा-
अवताराण्यनेकानि ह्यजस्य परमात्मनः ।
जीवानां कर्मफलदो ग्रहरुपी जनार्दनः ।।
अर्थात् अजन्मा परमात्मा के अनेक अवतार हैं । जीवों के कर्मानुसार फल देने के लिए ग्रह ही जनार्दन भगवान् के रुप हैं । भारतीय ऋषियों ने योगाभ्यासो, सूक्ष्म प्रज्ञा द्वारा शरीर के भीतर ही सौरमण्डल के दर्शन किये और अनुभव करके उन्होंने बतलाए कि-‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्ड’ यही सिद्धान्त भारतीय दर्शन में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है और इसी के अनुसार स्वनिरीक्षण कर आकाशीय और सौरमण्डलीय व्यवस्था ऋषियों द्वारा की गयी । महर्षि पराशरादि आचार्यों के सिद्धान्तों पर चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि यह शरीर ही सम्पूर्ण ग्रहों का कक्षा-वृत्त (Orbit of the Planets) है । यथा-
मेषो वृषश्चमिथुनः कर्क-सिंह-कुमारिकाः ।
तुलावृश्चिकधनुषो मक्रे कुम्भमीनास्ततः परम् ।।
अर्थात् मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चि, धनु, मकर, कुम्भ और मीन ये ही बारह राशियाँ हैं । इन्हें निम्नलिखित श्लोक द्वारा और भी स्प्ष्ट किया जा सकता है-
शीर्षाननौ तथा बाहू ह्रत्क्रोडकटिवस्तयः ।
गुह्योरुजानुयुग्मे वै युगले जङ्घके तथा ।।
अर्थात् जन्म-लग्न से उक्त बारह राशियाँ क्रम से काल पुरुष के शिर, मुख, दोनों भुजाएं, ह्रदय, पेट, कटि, वस्ति, गुह्यस्थान, उरु, दोनों जानु, जंघाओं में स्थित हैं । पुनः देखे जा सकते हैं –
कालस्यात्मा भास्करश्चित्तमिन्दुः सत्त्वं भौमः स्याद्वचस्चन्द्रसूनुः ।
देवाचार्यः सौख्यविज्ञानसारः कामः शुक्रो दुःखमेवार्कसूनुः ।।
अर्थात् काल रुपी पुरुष का अङ्ग विभाग इस प्रकार है- सूर्य आत्मा, चन्द्रमा चित्त, मंगल पराक्रम, बुध वचन, बृहस्पति सुख तथा विज्ञान का सार, शुक्र काम और शनि दुःख के स्वरुप हैं । इस प्रकार आकाश स्थित ग्रह के राशि, शरीर में स्थित राशि, ग्रहों के भीतर ही बतायी गयी है । इस शरीर स्थित सौर-चक्र का भ्रमण आकाश में स्थित सौरमण्डल के नियमों के आधार पर ही होता है । ज्योतिष शास्त्र व्यक्त सौर-जगत् के ग्रहों की गति, स्थिति आदि के अनुसार शरीर स्थित अव्यक्त सौर जगत् के ग्रहों की गति स्थित आदि को प्रकट करता है । इसीलिए इस शास्त्र द्वारा निरुपित फलों का मानव जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । । आधुनिक घटिका यन्त्र (घड़ी) के निर्माण से पूर्व प्राचीनकाल में ऋषि मुनि आकाशीय पिण्डों, ग्रहों, उपग्रहों, नक्षत्रादि के आधार पर काल-गणना करते थे । भारतीय ज्योतिष शास्त्र की प्राचीनता पर प्रो.मेक्समूलर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि-
“भारतीय आकाश मण्डल और नक्षत्र मण्डल आदि के बारे में अन्य देशों के ऋणी नहीं हैं । वे ही इन वस्तुओं के मूल आविष्कार कर्ता हैं ।”13
वेद क्या हैं–
चारों वेदों में ऋग्वेद हमारे भारतीय शास्त्रों का प्राचीनतम ग्रन्थ है । आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् वेबर, सर विलियम जोन्स, व्हिटनी, काल बुक, डेविस मैक्समूलर, थीबो तथा भारतीय विद्वान् कृष्णशास्त्री, बालकृष्ण दीक्षित, सुधाकर द्विवेदी, डा.आर.श्याम शास्त्री आदि विद्वानों नें ऋग्वेद का काल ईसा पूर्व चार हजार वर्ष स्वीकार किये हैं । वेदों में मनोविज्ञान, शिक्षा, खगोल शास्त्र, भूगोल शास्त्र, कृषिकर्म शास्त्र, राजधर्म शास्त्र इत्यादि विभिन्न विषयों के बारे में प्रतिपादन किया गया है ।
भारतीय दर्शनों में वेदों को अपौरुषेय कहा गया है । यथा-अपौरुषेय वेदाः । संसार में समस्त ज्ञान-विज्ञान के आधार वेद हैं । वर्तमान काल में जो ज्ञान-विज्ञान की समृद्धी दृष्टिगोचर हो रही है उसका मूल आधार केवल वेद ही हैं । समस्त ज्ञान-विज्ञान वेदों में समाहित हैं । वेद ही जीवन के पथ-प्रदर्शक हैं जो ज्ञान विज्ञान के अथाह भण्डार हैं । अतः वेद को पुरुष कहा गया है । वेद वाक्य ही आप्त वाक्य हैं । वेदों ज्योतिष शास्त्र को वेदपुरुष का नेत्र कहा गया है । शिक्षा मनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र के समुचित ज्ञान हेतु वेदों के षड् अङ्गों का अध्ययन करना आवश्यक होता है । वेदों के षड् अंग निम्निलिखित हैं –
- छन्द
- कल्प
- ज्योतिष
- निरुक्त
- शिक्षा
- व्याकरण
पाणिनीय शिक्षा में वेदाङ्गों (शिक्षाशास्त्र) का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।।14
वेदाङ्ग (शिक्षा) क्या हैं–
प्राचीन काल में माता-पिता और आचार्य सभी वर्णोच्चारण का ज्ञान अपने पुत्रों को और शिष्यों को देते रहते थे । धीरे-धीरे पुस्तकें लिखी गयीं और शिक्षा-सूत्रों की रचनाएं की गयीं । वेद के मन्त्रों के उच्चारण की शिक्षा ही वर्णोच्चारण शिक्षा के रुप में प्रसिद्ध हो गयी । इस विषय में अनेक ऋषियों ने ग्रन्थ लिखे हैं जिन्हें प्रातिशाख्य और शिक्षा कहा जाता है । महर्षि पाणिनी की शिक्षा विशेष रुप से प्रसिद्ध मानी जाती है । पाणिनी के शिक्षा के मुख्य चार सोपान हैं-
- श्रवण शिक्षा
- उच्चारण शिक्षा
- पठन शिक्षा
- लेखन शिक्षा
इन्हीं चारों शिक्षाओं अथवा कौशलों का विकास तथा अनुप्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान तथा ज्योतिष विज्ञान के उपयोगिताओं तथा अन्तर्सम्बन्धों की पराकाष्ठाएं है ।
वेदवेदाङ्गों में शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष विज्ञान का स्थान–
वेदों को समझने के लिए वेदाङ्गों का परिचय आवश्यक है । वेदों के 6 अङ्ग माने गए हैं, जिसमें ऋषियों ने वेद को वेद-पुरुष मानते हुए उनके छह अंगो का वर्णन किए हैं जो छन्द, कल्प, ज्योतिष, निरुक्त, शिक्षा तथा व्याकरण के रुप में प्रतिष्ठित हैं । पाणिनीय शिक्षा में वेदों के अंगों का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।
तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ।।15
शिक्षाशास्त्र तथा ज्योतिष विज्ञान का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य–
शिक्षाशास्त्र तथा ज्योतिष विज्ञान दोनों का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य मानव में छीपी हुई अन्तर्शक्तियों को बाहर लाना तथा कल्याणकारी जीवन के लिए दृष्टि प्रदान करते हुए सुमार्ग तैयार करना । जिस मार्ग पर शिक्षामनोविज्ञान गतिशील मानव को ज्ञान तथा व्यवहार के अनुभवों का गन्ध-सुगन्ध का निर्णय करने का अनुभव प्रदान करता है ।
अर्थात् गन्ध-सुगन्ध का तात्पर्य है कि विवेकशीलयुक्त व्यवहार तथा अविवेकशीलयुक्त व्यवहार का निर्णय करना । इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र उस विवेक-अविवेकशीलता से परिपूर्ण व्यवहार का निर्णय करने हेतु मानव को दृष्टि प्रदान करता है । यही ज्योतिष शास्त्र तथा शिक्षामनोविज्ञान के प्रासंगिकता के मूल उद्देश्य होते हैं । अर्थात् शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र एक दूसरे के संपूरक हैं । उदाहरण स्वरुप जिस प्रकार एक गाड़ी के दो पहिए होते हैं जिसमें एक पहिए के बिना दूसरे पहिए में गति नहीं हो सकती आर गाड़ी का स्तीत्व समाप्त हो जाता है । उसी प्रकार शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र के भी स्तीत्व, सम्बन्ध तथा उपयोगिताएं हैं ।
शिक्षामनोविज्ञान जहाँ घ्राण अर्थात् नासिका (Nose) का कार्य करता है वहीं ज्योतिष शास्त्र दृष्टि (Vision) का कार्य करता है । जीवन के नित्य चर्या, सदाचरण हेतु, उत्तम व्यक्तित्व निर्माण, कल्याणमयी चिन्तन, सुख-शान्ति पूर्वक जीवन यापन, ऐच्छिक उद्देश्यों की पूर्ति इत्यादि हेतु शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिताओं की महत्ताएं कल्याणकारी शास्त्रों की पराकाष्ठाएं हैं ।
भूत-भविष्य का सद्विचार, विविध विज्ञानों की संरचनात्मक अध्ययन, विश्वकल्याणकारी कार्योजनाओं के संचालन हेतु शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र ये दोनों भारतीय शास्त्रों का अध्ययन तथा ज्ञान भूमण्डल के सभी निवासियों के लिए अनिवार्य हैं । इन दोनों शास्त्रों की शिक्षणाधिगम प्रक्रिया गर्भाधान संस्कार से प्रारम्भ होकर जीवन के सभी आयामों से होती हुई सभी आयु-वर्गो के लोगों के वृद्धावस्था पर्यन्त चलती रहने वाली प्रक्रिया है । इन शास्त्रों की उपयोगिताओं को वराहमिहिर शुभ-अशुभ कर्मों तथा भविष्य के अध्ययन को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि-
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः पक्तिम् ।
व्यञ्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव ।।16
ये शास्त्र जीवन के सभी अंगों मे शान्ति हेतु अपौरुषेय हैं । यथा-
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये ।
सं योरभिस्रवन्तु नः ।।
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
सं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ।।
सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु दुर्भित्रियास्वस्मै ।
सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ।।
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ।
पश्येम शरदः शतं जीवेम ऊ शरदः शतम् श्रृणुयाम् ।
शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः ।
स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ।।
ऊँ भूर्भूवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
कया नश्चित्र आबुवदूती सदावृधः सखा ।
कया शचिष्ठया वृता ।।
कस्त्वा सत्यो मदानां म ऊँ हिष्ठो मत्सदन्धसः ।
दृढा चिदारुजे वसु ।।
शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा ।
शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः शं नस्तपतु सूर्यः ।
शं नः कनिक्रदद् देवः पर्जन्यो अभिवर्षतु ।17
महर्षि नारद जी के द्वारा ज्योतिष शास्त्र का प्रचार-प्रसार किया गया । अधोलिखित अष्टादश आचार्यों को ज्योतिष शास्त्र का प्रवर्तक माना गया-
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः ।
कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरंङ्गिराः ।।
रोमशः पौलिशाश्चैव च्यवनो यवनो भूगुः ।
शौनेकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः।।18
ज्योतिष शास्त्र के विभाग–
आचार्यों ने केरलि और शकुन को लेकर पंचस्कन्धात्मक शास्त्र माना है-
पञ्चस्कंधमिदं शास्त्रं होरा गणित संहिता ।
केरलि शकुनश्चैव ज्योतिः शास्त्रमुदीरितम् ।।
कुछ आचार्य नभोमण्डल में स्थित ज्योति सम्बन्धी विद्या को ज्योतिर्विद्या मानते हैं । अर्थात् जिस शास्त्र में ज्योतिर्विद्या का साङ्गोपाण्ग निरुपण किया जाता है वह है ज्योतिषशास्त्र । अर्थात् जिस शास्त्र से संसार का मर्म, जीवन-मरण के रहस्य, जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में सर्वाङ्ग प्रकाश डाला जाता है वह है ज्योतिष शास्त्र । ज्योतिर्मयी जाग्रत् जगत् की एक दिव्य ज्योति का नाम ही जीवन है और ज्योति का पर्यावाची पद ज्योतिष है ।
सामाजिक जीवन में शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र की प्रासङ्गिकता तथा उपयोगिता–
वर्तमान काल में शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त विशाल क्षेत्र परिलक्षित होता है । भौतिक जीवन में परिवर्तनशील सामाजिक जीवन में मानवीय मूल्यों के साथ-साथ शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र के उद्देश्य भी बदल गये हैं । शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र व्यवसाय से सम्बद्ध हो जाने के कारण व्यावसायिक भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु, विविध विषयों के चयनात्मक प्रक्रिया में परोपकारी तथा अहं भूमिकाओं का निर्वाह करते चले आरहे हैं । क्योंकि शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र के आधार पर किये गये निर्णय अत्यन्त उपयोगी तथा सहायक सिद्ध हुए हैं । अतः इन शास्त्रों की उपयोगिताएं मनोवैज्ञानिक दृष्टया अधिक अन्तर्सम्बन्धित हैं ।
शिक्षा शास्त्र के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता तथा प्रासंगिकता को निम्नलिखित कारकों द्वारा और अधिक जाना जा सकता है-
तस्मिन् काले स्थापयेत्तत्पुरस्ताद्वस्त्रं शस्त्रं पुस्तकं लेखनी च।
स्वर्णरौप्यं यच्च गृह्णाति बालस्तैराजोवैस्तस्य वृत्तिः प्रदिष्टा ।।19
- भविष्य निर्माण हेतु (कैरियर काउन्सलिंगः)
- जन्मकुण्डली निर्माण
- परामर्श व्यावसायिक सामञ्जस्य स्थापना हेतु
- व्यवसाय के चयन हेतु
- ग्रहों की स्थिति का अनुसंधान करना
- मनोवैज्ञानिक परामर्श तथा निर्देशन
- जातक का अध्ययन
- जातक की अभिरुचि तथा इच्छा का ज्ञान
- मनोवैज्ञानिक परामर्श
- निर्देशन
- बालक-बालिकाओं के शारीरिक मानसिक विकास की परामर्श देना
- बालक-बालिकाओं के रुची, कार्यशैलियों के परीक्षण तथा परामर्श देना
- बालक-बालकिकाओं के व्यक्तित्व विकास करने सम्बन्धित परामर्श
- भौगोलिक वातावरण का अध्ययन
- वर्षा, धूप काल का निर्धारण
- ग्रहों की शान्ति
- गुरुत्वाकर्षण-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्तया ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।20
- परिधि–व्यास सम्बन्धी सिद्धान्त– ग्रन्थों में प्रतिपादित वर्तमान में तथा ‘परिधि’ (Circumference) ‘व्यास’ (Diameter) का अनुपात 22/7 के रुप में प्रसिद्ध है । जिसे पाई ( ) के नाम से भी जाना जाता है । इस का अत्यन्त निकटवर्ती मान आर्यभट्ट के द्वारा लिखित ग्रन्थ आर्यभटीय में उल्लिखित है-
चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथासहस्त्राणां ।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्तुपरिणाहः ।।21
अर्थात् 20000 (बीस हजार) व्यास के वृत्त की आसन्न परिधि 62832 होती है । इसी अनुपात को आधार मानकर भाष्कराचार्य द्वितीय ने भी अपने ग्रंथ लीलावती में व्यास तथा परिधि के अनुपात को दर्शाया है-
व्यासो भनन्दाग्निहते विभक्ते खबाणसूर्यैः परिधि च सूक्ष्मः ।
द्वाविंशतिघ्नेविह्रतेऽथशैलैः स्थूलोऽथवा स्याद् व्यवहारयोग्यः ।।22
अर्थात् 1250 व्यास के वृत्त की परिधि का मान 3927 होता है एवं स्थूल मान के अनुसार 7 व्यास की परिधि का मान 22 होता है । इस प्रकार परिधि-व्यास सम्बन्ध के सूक्ष्म मान ज्योतिष शास्त्र में ही प्रतिपादित किया गया है ।
- भूभ्रमण सिद्धान्त
- काल गणना तथा कालनिर्णय-
लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः ।
स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्चामूर्त उच्यते ।।
प्राणादि कथितो मूर्तस्त्रुट्याद्योऽमूर्तसंज्ञकः ।
शङ्भिः प्राणैर्विनाडी स्यात् तत्षष्ट्या नाडिका स्मृता ।।23
- विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धान्तों की स्थापना
- ग्रहों तथा राशियों की सही दिशा-दशा तथा फलादेशों का वर्णन
- पञ्चाङ्ग का निर्माण तथा वर्णन
- वास्तुशास्त्र की संरचना तथा सामाजिक उपयोगिता
‘वास्तु शास्त्रं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया’
- वर्षा-विज्ञान का निरुपण तथा भविष्यवाणी
- व्यक्ति विषयक भाग्य, कर्म, ज्ञान का विकास सम्पादन
- शकुन विचार
- स्त्री-पुरुष भेद, फल, विचार, लक्षण, चिंतन-निर्धारण
- यात्रा विचार
- होरा स्कन्ध की सामाजिक उपयोगिता
- होरा शास्त्र जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त –
‘होरेत्यहोरात्र विकल्पमेके वाञ्छन्ति पूर्वापरवर्णलोपात्’24
- उद्योग करने तथा अभिप्ररेणा प्रदान हेतु
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।25
हन्यते दुर्बलं दैवं पौरुषेण विपश्चिताः ।26
विधात्रा लिखिता यस्य ललाटेऽक्षरमालिका ।
दैवज्ञस्तां पठेत् प्राज्ञः होरानिर्मलचक्षुषा।।27
- रत्नविज्ञान की उपयोगिता-
माणिक्यमुक्ताफलविद्रुमाणि गारुत्मकं पुष्पकवज्रनीलम् ।
गोमेदवैदूर्यकमर्कतः स्यू रत्नान्यथो ज्ञस्य मुदे सुवर्णम् ।।28
अर्थात् सूर्य की प्रसन्नता के लिए माणिक्य, चन्द्रमा के लिए मोती, मंगल के लिए मूंगा, बुध के लिए पन्ना, गुरु के लिए पुष्पराग, शुक्र के लिए हीरा, शनि के लिए नीलम्, राहु के लिए गोमेद तथा केतु के लिए वैदूर्य (लह-सुनियाँ) रत्नों को धारण करना चाहिए ।
- ज्योतिष और आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान)
- अर्थाजन की उपयोगिता- आचार्य कल्याण वर्मा का कथन है कि-
अर्थाजने सहाय पुरुषाणामापदणवे पोतः ।
यात्रासमये मन्त्री जातकमपहाय नास्त्यपरः ।।29
अर्थात् जातक की रुची, दक्षता, स्वभावादि का विश्लेषण करके व्यवसाय का कार्य क्षेत्र चुनने का कार्य किया जाना चाहिए ।
- अनुशासन,पाठ्यक्रम, शैक्षिक प्रबन्धन
शिक्षा में अनुशासन, पाठ्यक्रम निर्धारण, शैक्षिक प्रबन्धन का कार्य महत्त्वपूर्ण कार्य होता है । पाठ्यक्रम का निर्धारण तथा उसका सही क्रियान्वयन करना शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्तों मुख्य कार्य होता है । पाठ्यक्रम कैसा होना चाहिए उसका वर्णन भाष्कराचार्य जी का कथन द्रष्टव्य है-
‘नो संक्षिप्तं न बहुवृथा विस्तरः शास्त्रतत्वम् ।
लीलागम्य सुललितपदः प्रश्नरम्यः स यस्मात्–’30
- कक्षोपकरण, शिक्षणपद्धति-आगमन-निगमन, ह्यूरिष्टिक विधि, विश्लेषण-संश्लेषण विधि, प्रायोजना विधि, अभिकल्प, सूत्र विधि, व्यास विधियों के उपयोग इत्यादि शिक्षणमनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र के मुख्य कार्य होते हैं ।
- परीक्षाप्रणाली – प्रायोगिक तथा तत्सम्बन्धित विषयों की आवश्यकतानुसार परीक्षा ली जाती है । इसी कराण ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन प्रमुख ग्रन्थों में भी शिष्यों के सुपरिचित होने पर ही ज्ञान प्रदान करने की बात कही गयी है । जेसे कि सूर्यसिद्धान्त में कहा गया है-
रहस्यमेतद्देवानां न देयं यस्य कस्यचित् ।
सुपरीक्षितशिष्याय देयं वत्सरवासिने ।।31
- कर्तव्य निष्ठा तथा योग्य व्यक्तियों का चयन-
अल्पावशिष्टे तु कृते मयो नाम महासुरः ।
रहस्यं परमं पुण्य जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम् ।।
वेदांगमग्रयमखिलं ज्योतिषां गतिकारणम् ।
आराधयन् विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुश्चरम् ।।32
शिक्षामनोवैज्ञानिक तथा ज्योतिष शास्त्र के शैक्षिक सिद्धान्तों का अन्तर्सम्बन्ध तथा प्रासंगिकता –
- 1.शिक्षा के विविध सूत्रों का उपयोग-
- 2. क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त
- जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त
- हेतु प्रयोजन का सिद्धान्त
- चुनाव का सिद्धान्त
- विभाजन का सिद्धान्त
- ज्ञात से अज्ञात की ओर चलना
- सरल से कठिन
- सूक्ष्म से स्थूल की ओर
- विशेष से समान्य की ओर
- अनुभव से तर्क की ओर
ज्योतिष शास्त्र तथा शिक्षाशास्त्र की मनोवैज्ञानिक उपयोगिता–
बृहत्तसंहिता के सांवत्सर सूत्राध्याय में आचार्य वराहमिहिर सुयोग्य सांवत्सरिक (ज्योतिषज्ञ) के लक्षणों का विस्तार पूर्वक वर्णन करते हुए कहते हैं कि-
तस्माद्राज्ञाधिगन्तव्यो विद्वान् सांवत्सरोऽग्रणीः ।
जयं यशः श्रियं भोगान् श्रेयश्च समभीप्सता ।।33
जीवन काल का स्वरूप सदैव बदलता रहता है । उसका मूल सदैव विद्यमान रहता है । इसीलिए सूर्यसिद्धान्त में सूर्यांश पुरुष कहते हैं कि-
श्रूणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् ।
युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता ।।
शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्व प्राह भाष्करः ।
युगानां परिवर्तेन कालभोदोऽत्र केवलः ।।34
उपसंहार–
शिक्षामनोविज्ञान जहाँ घ्राण अर्थात् नासिका का कार्य करता है वहीं ज्योतिष शास्त्र दृष्टि का कार्य करती है । जीवन के नित्य चर्या, सदाचरण हेतु, उत्तम व्यक्तित्व निर्माण हेतु, कल्याणमयी जीवन यापन हेतु इत्यादि इन महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति करना शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिताओं की पराकाष्ठाएं हैं ।
सामाजिक जीवन में भूत-भविष्य का काल-विचार, विविध विज्ञानों की संरचनात्मक अध्ययन हेतु ये दोनों भारतीय शास्त्र अनिवार्य हैं । शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र की प्रक्रियाएं गर्भाधान संस्कार से प्रारम्भ होकर जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं । शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र एक ही वृक्ष के दो अभिन्न अंग हैं, जहाँ एक अंग के विना दूसरा अंग अधूरा है ।
यदि एक शास्त्र मन को नियन्त्रित करने वाला शिक्षा मनोविज्ञान है तो दूसरा शास्त्र मन को कैसे देखें, कितना प्रत्यक्षण करें, कब और क्यों करें, किसे नियन्त्रित किया जाए, इत्यादि इन कारकों का पहचान प्रदान कराने वाली दृष्टि है अर्थात् वही ज्योति के रुप में ज्योतिष शास्त्र है । जहाँ एक शास्त्र मानव को विवेकशीलता के गुणों को प्रदान करता है तो दूसरा शास्त्र उन गुणों की वैधता, विश्वसनीयता तथा उपयोगिता को प्रत्यक्षण करने के लिए नेत्र का कार्य करता है ।
मानव जीवन में उपर्युक्त दोनों शास्त्रों के कार्य, उद्देश्य, उपयोगिताएं तथा प्रासंगिकताएँ समान तथा अनिवार्य हैं । दोनों की शैक्षिक-प्रायोगिक प्रक्रियाएं समान रुप से चलती हैं । ये प्रक्रियाएँ गर्भाधान संस्कार से लेकर जीवन के विभिन्न आयामों तक तथा सामाजिक स्तरों के विभिन्न तंत्रों तक चलते रहने की गतिशील तथा परिवर्तनशील धूरियाँ हैं।
उदाहरण स्वरुप जिस प्रकार प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध सृष्टि से है उसी प्रकार प्रत्येक स्तर पर शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र समाज के विभिन्न भागों से सम्बन्धित हैं । अतः शिक्षामनोविज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र की आवश्यकताएं तथा उपयोगिताएं जीव-जगत् के सभ्यसमाज के प्रत्येक क्षणों में तथा गतिशील जीवन के प्रत्येक पगों पर अनिवार्य आवश्यकताओं के रुप में अनुभव किया जा सकता है ।
अनुशीलित ग्रन्थों की सूची–
- अध्ययन बोर्ड, (फरवरी 2020), भारतीय ज्योतिष का परिचय एवं इतिहास, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, नैनीताल-263139
- ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता, इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
- वेद पारिजात, (2010) राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT NEW DELHI), नई दिल्ली
- ज्योतिष शास्त्र में रोग ज्ञान के आधार, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, नैनीताल-263139
- पाणिनीय शिक्षा, गुगल अन्तर्जाल
- मिश्र, डा. विन्दाप्रसाद, नारदीय ज्योतिष, (2016), विद्यानिधि प्रकाशन खजूरी खास, दिल्ली-90
- झा, सोमेश्वर नाथ, (2008), श्रीमत्कल्याणवर्म विरचित (व्याख्या), सारावली, भारतीय बुक कारपोरेशन, दिल्ली-7
- मिश्र, डा. सत्येन्द्र, (2018), सूर्यसिद्धान्त, पं. कपिलेश्वर शास्त्री कृत, चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी-221001
- जोशी, पं. श्री केदार दत्त, (2010), सिद्धान्तशिरोमणेः गोलाध्यायः, मोतीलाल बनारसी दास प्रकाशन, दिल्ली-7
- चतुर्वेदी, डा. मुरली दास, (1981), श्रीमन्मिश्रवलभद्र विरचित, होरारत्नम्, मोती लाल बनारसी दास प्रकाशन, दिल्ली-7
- झा, पं. देवचन्द्र, (2020), बृहत्पाराशर-होराशास्त्रम्, श्री पराशर मुनि विरचित, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी-221001
- झा, आचार्य सीता राम, (2021), लीलावती, श्रीमद्भाष्कराचार्य विरचित, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-2
- KERN, Dr. H., (1990), The Aryabhatiya, Eastern Book Linkers, Delhi-7
- शुक्ल, आचार्य श्री कमलाकान्त, (2003), लघुपाराशरी-मध्यपाराशरी च, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्विविद्यालय, वाराणसी-221002
- पचौरी, प्रो. गिरीश, शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय आधार, विनय रखेजा, आर.लाल बुक डिपो, मेरठ-370001
- त्रिपाठी, डा. श्रीकृष्ण मणि, नीतिशतकम्, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी-221001
- पं., ईश्वरचन्द्र, (2004), यजुर्वेद संहिता, श्रीमद्वाजसनेयी-माध्यन्दिन शुक्ल, परिमल प्रकाशन, शक्तिनगर, नई दिल्ली-110007
- शर्मा, गणपतराम, व्यास, हरिश्चन्द्र, (2020), अधिगम-शिक्षण और विकास के मनोसामाजिक आधार, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, राजस्थान-302004
- भटनागर, सुरेश, गुप्ता, डा. महिमा, सिंह, डा. के पी. शिक्षामनोविज्ञान, आर लाल बुक डिपो, मेरठ-26000
- सुखिया, एस.पी., (1995), विद्यालय प्रशासन एवं संगठन, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा-3
- भट्ट, शर्मा, एजूकेशनल एडमिनिस्ट्रेशन, कृष्ण पब्लिकेशन हाउस, दिल्ली-31
- चौबे, डा. सरयू प्रसाद, शिक्षा के सामाजशास्त्रीय आधार, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा-2
1 महात्मागान्धी
2 अरस्तु
3 स्वामी विवेकानन्द
4डा. थामस
5रुसो
6 विष्णुपुराण
7 नीतिशतकम्
8 भर्तृहरि, नीतिशतकम्
9 शुक्ल यजुर्वेद
10 कठोपनिषद्
11 वेदाङ्गज्योतिष, याजूष ज्योतिष 5
12 सिद्धान्त शिरोमणि काल.11
13 प्रो. मेक्समूलर
14 पाणिनीय शिक्षा
15 पाणिनीय शिक्षा. श्लोक 42, 43
16 लघु जातक- राशि प्रभेदाध्याय-श्लोक-03
17 यजुर्वेद संहिता-36 वां अध्याय
18 काश्यपसंहिता
19मुहुर्त चिन्तामणि संस्कार प्रकरण श्लोक. 22
20 सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय भुवन कोश-श्लोक 06
21 आर्यभटीय गणितपाद. श्लोक.10
22 लीलावती, क्षेत्रव्यवहार, श्लोक – 42 1
23 सूर्यसिद्धान्त मध्यमाधिकारः, श्लोक 10,11
24 बृह्ज्जातक, राशि प्रभेदाध्याय, श्लोक 03
25 नीतिशतकम्
26 होरारत्न
27 सारावली.2/1
28 मूहूर्तचिन्तामणि, गोचरप्रकरण, श्लोक. 10
29 सारावली, होरा शब्दनिरुपणाध्याय. 5
30 सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय गोलप्रशंसा श्लोक.4
31 सूर्यसिद्धान्त
32 सूर्य सिद्धान्त मध्यमाधिकार श्लोक 2, 3
33 भारतीय ज्योतिष का इतिहास एवं परिचय भाग 2, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी
34 सूर्यसिद्धान्तः मध्यमाधिकार श्लोक 8, 9