आज मुहूर्त साधन विषय पर सुप्रसिद्ध कथाव्यास आचार्य श्री गोपेश भारद्वाज जी के द्वारा एक प्रश्न पूछा गया। प्रश्नकर्ता और मेरे बीच हुए बातचीत के अंश यथावत् प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
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प्रश्नकर्ता – जय श्री राधे भैया !
कथा/पूजन/हवन अथवा किसी अनुष्ठान का स्वयं के लिए अथवा यजमान के लिए कैसे मुहूर्त देखा जाता है और किन किन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है ? यदि इसका कहीं सरल और विस्तृत विधान हो तो कृपा करें 🙏🏻🙏🏻
मेरा उत्तर – भैया इसके लिए तो हर अनुष्ठान के अपने मुहूर्त होते हैं। इसलिए कैसे बताया जाए? ये प्रश्न है।
सर्वसामान्य नियम बता देता हूँ और नियम भी ऐसा कि सरलता से याद हो जाए ।
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव
ताराबलं चन्द्रबलं तदेव ।
विद्याबलं दैवबलं तदेव
लक्ष्मीपति तेङ्घ्रियुगं स्मरामि।।
- लग्नशुद्धि – कार्यनुसार चर स्थिर, द्विस्वभाव अथवा क्रूर सौम्य अथवा सम विषम अथवा तत्वानुसार लग्न चयन अथवा लग्न विशेष का ही चयन करे। साथ ही केन्द्र में शुभग्रह हों। त्रिषडाय में पापग्रह हों। अष्टम और द्वादश भाव ग्रहरहित हो दोषरहित हो।
- दिनशुद्धि – तिथि, वार, नक्षत्र, योग एवं करण शुद्ध हों। कार्यानुकूल हों तथा दोषरहित हों। यदि किसी विशेष शुभत्व से युक्त हों तो अति उत्तम।
- ताराशुद्धि – नक्षत्र में कोई दोष या वेध न हो। साथ ही नवतारा चक्र के अनुसार उत्तम नक्षत्र का चयन किया गया हो।
- चन्द्रशुद्धि – कहा गया है कि चन्द्रं हि वीर्यमखिलग्रहवीर्यबीजं इसलिए चन्द्रमा का विशुद्ध होना परमावश्यक है। साथ ही कार्यानुसार सूर्य, गुरु एवं शुक्र शुद्धि भी देखनी चाहिए।
- विद्याबल – कार्य सुयोग्य आचार्य के द्वारा सम्पन्न कराया गया हो जिनको विधि निषेध का उत्तम ज्ञान हो। क्योंकि इसके बिना मुहूर्त का कोई महत्व नहीं है। जिस प्रकार उत्तम भूमि पर ही बीज अपना प्रभाव दिखा पाते हैं। उसी प्रकार उत्तम आचार्यों के नेतृत्व में किए गए अनुष्ठानों पर ही मुहूर्त अपना प्रभाव दिखा पाते हैं।
- दैवबल – प्रारब्ध के साथ साम्यता रहने पर ही अनुष्ठान का फल तत्काल समझ में आता है अन्यथा जब तत्साम्य प्रारब्ध वाला काल आता है तब अनुष्ठान का फल मिलने से तब तक इंतजार करना होता है। अतः ग्रहदशा एवं गोचर आदि के द्वारा दैवबल की साम्यता भी देखनी चाहिए।
- श्रीमन्नारायण के चरणकमलों में दृढ आस्था – अखिल ब्राह्मण्ड के संचालक श्रीमन्नारायण के आदेशानुसार किए गए अनुष्ठान ही सफल होते हैं अन्यथा तो उनको कभी न कभी विफल या विनाशकारी होना है। श्रुति स्मृति ममैवाज्ञे के अनुसार श्रीमन्नारायण की आज्ञा का सर्वथा पालन हो तथा अनुष्ठान के दौरान सर्वदा श्रीमन्नारायण के चरणों का स्मरण हो तो अनुष्ठान सफल होते हैं।
इस प्रकार इनमें बताए गए सभी विषय समान महत्व वाले हैं। किसी का भी महत्व बहुत ज्यादा कम या बहुत ज्यादा अधिक नहीं है। अंतिम बिन्दू का महत्व अन्य की अपेक्षा थोडा अधिक है क्योंकि गुरुजनों के मुख से सुना है कि राजाज्ञा भी एक प्रकार का मुहूर्त ही होता है।
अतः अखिल ब्रह्माण्ड के राजा श्रीमन्नारायण के स्मरण पूर्वक अनुष्ठानादि सम्पन्न होने से उसमें राजाज्ञा का अतिरिक्त बल प्राप्त होने के कारण अन्य में थोड बहुत कुछ दोष भी हों तो उनका निवारण हो जाता है।
ध्यान रहे कि अंतिम बिन्दू को ठीक से पढा जाए और ये ध्यान रखा जाए कि सामान्य दोष का ही निवारण होता है क्योंकि दोषों के जनक भी श्रीमन्नारायण ही हैं।
ब्रजेश पाठक ज्यौतिषाचार्य – Gold Medalist