पराशरमुनि एवं सूतजी का परिचय

पराशर मुनि और सूतजी कौन थे इसकी तो बहुत लम्बी कथा है। परन्तु अत्यंत सार रूप में बता रहा हूँ।

फोटो गूगल से साभार

★ वशिष्ठ ऋषि के पुत्र शक्ति और शक्ति के पुत्र पराशर हैं। पराशर का काल महाभारत के आस पास का ही है। जो काल पाण्डवों का है उसी के समकक्ष काल पराशर का है।

★ उसी काल में एक सुधन्वा नाम के राजा थे, जिनका वीर्य जमुना नदि में गिर जाता है उसमें ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया।

निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह पिता का सहयोग करने के लिए नाव खेने का कार्य करने लगी।

★ एक बार पाराशर मुनि को मत्स्यगंधा की नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, “देवि! मैं तुमसे पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ।” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा संबंध सम्भव नहीं है। मैं कुमारी हूँ। मेरे पिता क्या कहेंगे ? पाराशर मुनि बोले, “बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” पाराशर ने फिर से मांग की तो सत्यवती बोली की” मेरे शरीर से मछली की दुर्गन्ध निकलती है”। तब उसे पराशर मुनि ने आशीर्वाद देते हुये कहा,” तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।”

★ इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया ताकि कोई और उन्हें उस हाल में न देखे। इस प्रकार पराशर व सत्यवती में प्रणय संबंध स्थापित हुआ।

★ समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।” इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

★ इस प्रकार मत्यगंधा अर्थात् सत्यवती और पराशर के द्वारा कृष्णद्वैपायन व्यास जी का जन्म हुआ जिन्हें हम वेदव्यास के नाम से जानते हैं।

फोटो गूगल से साभार

★ बाद में सत्यवती का विवाह भीष्मपितामह के पिता शान्तनु से स्वयं देवव्रत (भीष्मपितामह) ने करवाया।

★ वेदव्यास और उनकी पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बालयोगी शुकदेव मुनि।

★ वेदव्यास जी के कई विद्वान् शिष्य हुए। जिनमें से प्रमुख थे – पैल, जैमिनी, वैशम्पायन, शौनक, सुमन्तुमुनि और रोमहर्षण।

★ वेदव्यास जी के शिष्य रोमहर्षण को ही हमलोग सूतजी के नाम से जानते हैं। एक बार सम्राट पृथु ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया जिसके अंत में सभी देवताओं को हविष्य दिया जा रहा था। ब्राह्मणों ने भूल से देवराज इंद्र को अर्पित किये जाने वाले सोमरस में देवगुरु बृहस्पति के हविष्य का अंश मिला दिया। जब उस हविष्य को अग्नि में डाला गया तो उसी से रोमहर्षण की उत्पत्ति हुई। चूँकि उनका जन्म इंद्र (क्षत्रिय गुण) और बृहस्पति (ब्राह्मण गुण) के मेल से हुआ था, इसलिए उन्हें “सूत” माना गया।

★ जब महर्षि वेदव्यास ने महापुराणों की रचना की तो उनके मन में चिंता हुई कि इस ज्ञान को कैसे सहेजा जाये। उनके कई शिष्य थे किन्तु कोई भी उन सभी १८ पुराणों को सम्पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं कर पाए। जब सूत जी किशोरावस्था में पहुंचे तो एक योग्य गुरु की खोज करते हुए महर्षि वेदव्यास के पास पहुंचे।

★ महर्षि वेदव्यास जी के आश्रम में सूत जी की विशेष रूप से वेदव्यास जी के एक अन्य शिष्य शौनक ऋषि से घनिष्ठ मित्रता हो गयी। ये दोनों महर्षि व्यास के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक माने जाते हैं। रोमहर्षण ने अपनी प्रतिभा से व्यास रचित सभी १८ महापुराणों को कंठस्थ कर लिया। ये देख कर व्यास मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने रोमहर्षण से उस अथाह ज्ञान का प्रसार करने को कहा।

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★ तत्पश्चात रोमहर्षण (सूतजी) ने अपने गुरु महर्षि वेदव्यास से अपने पुत्र उग्रश्रवा को उनका शिष्य बनाने का अनुरोध किया। उग्रश्रवा अपने पिता के समान ही तेजस्वी थे जिसे देख कर व्यास जी ने उन्हें भी अपना शिष्य बना लिया।

★ रोमहर्षण सभी वेद पुराणों का अध्ययन तो कर ही चुके थे, वे और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमपिता ब्रह्मा की तपस्या की। ब्रह्मदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया।

★ रोमहर्षण ने ब्रह्माजी से पूछा कि मुझे अपने गुरु से सभी पुराणों का ज्ञान प्राप्त हुआ है और आपने भी मुझे अलौकिक ज्ञान प्रदान किया है। अब मैं किस प्रकार इस ज्ञान का प्रसार करूँ? इस पर ब्रह्मदेव ने उन्हें एक दिव्य चक्र दिया और कहा कि इसे चलाओ और जिस स्थान पर ये रुक जाये वही अपना आश्रम स्थापित कर इस ज्ञान का प्रसार करो।

★ ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर रोमहर्षण ने उस चक्र को चलाया और वो जाकर “नैमिषारण्य” नामक स्थान पर रुक गया जो ८८००० तपस्वियों का स्थल था।

फोटो गूगल से साभार

★ इसी स्थल पर भगवान विष्णु ने निमेष (आंख झपकने में लगने वाला समय) भर में सहस्त्रों दैत्यों का संहार कर दिया था। इसी कारण उस स्थान का नाम नैमिषारण्य पड़ा।

★ उसी पवित्र नैमिषारण्य तीर्थ में रोमहर्षण (सूतजी) ने अपना आश्रम स्थापित किया और प्रतिदिन पुराणों में स्थित ज्ञान विज्ञान के प्रसार हेतु नित्य सत्संग करने लगे।

★ वेदव्यासजी के द्वारा वेदों का विस्तार किया गया। पुराणों और महाभारत की रचना की गई।

★ इन्हीं पराशर मुनि के द्वारा कई ग्रन्थों की रचना की गई जिनमें से ज्योतिश्शास्त्र का अमूल्य ग्रन्थ बृहत्पाराशर-होराशास्त्रम् अद्वितीय है।

✍️ ब्रजेश पाठक ज्यौतिषाचार्य

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